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भगवतीसूत्र कियत्पर्यन्तं तत्राह-'जाव' यावत् उद्वर्तनापर्यन्तं वनस्पतिकायिकानां तेजस्वायिफवदेव ज्ञातव्यमिति । तेजस्कायिकापेक्षया यदैलक्षण्यं तदाह-'नवरे' इत्यादि । 'नवरं आहारो नियम छदिप्सि' नवरमाहारो नियमात् पदिशं पट्स्वपि दिक्षु नियमतो वनस्पतिकायिकानामाहारो भवति परन्तु इदसत्र विचारणीयं लोकान्त निष्कुटानि आश्रित्य विदिगादेरेव आहारस्य तेषां वनस्पतिकायिकानां संभवात् अथवा वादरनिगोदानाश्रित्य नियमात् पदिशमित्यवसेयम् बादरनिगोदानां पृथिव्याश्रितत्वेन पइदिगाहारस्व संभवादिति । स्थितिविषयेऽपि बनस्पतिकायिकानामितरापेक्षया वैलक्षण्यं दर्शयति-'ठई' इत्यादि । 'ठई जहरनेणं अंतो मुलुत्त' यहां उक्त से अन्य और सब कश्न तेजस्कायिक के जैसे ही है 'जाव उवति' यावत् उतना तक जानना चाहिये परन्तु तेजस्कायिक के कथन की अपेक्षा से इनके कथन में जो अन्तर है वह आहार एवं स्थिति की अपेक्षा लेकर के है, यही यात 'नवरं आहारो नियमा छदिसिं' इस पाठ द्वारा प्रकट किया गया है। छहों दिशाओं में से नियस से वनस्पतिकायिक जीवों का आहार होता है। यहां तात्पर्य ऐसा है कि लोकान्त में जो निष्कुट है उनको आश्रित करके तीन दिशाओं में से ही उनका आहार संभवित होता है अथवा बादर निगोदों को आश्रित करके नियम से छहों दिशाओं में से इनका आहार होता है क्योंकि चादर निगोदों के पृथिव्याश्रित होने से छहों दिशाओं में से ही इनके आहार की संभावना है। स्थिति के विषय में भी वनस्पनिकायिकों की ४थन drsहिनी म 'जाव उबट्रेति' यावत् Sad (निज) सुधीभी સમજવું. પરંતુ તેજ કાયિકના કથનની અપેક્ષાએ આ કથનમાં જે અંતર છે, ते माहार मन स्थितिनी अपेक्षा छे. मे १ त 'नवरं आहारो नियमा s’ આ પાઠથી બતાવેલ છે. વનસ્પતિકાચિકેને છએ દિશાથી નિયમથી આહાર હોય છે. અર્થાત્ વનસ્પતિકામિકા નિયમથી છએદિશાએથી આહાર કરે છે.
આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-કાન્તમાં જે નિષ્ફટ છે, તેને આશ્રય કરીને ત્રણ દિશાએથી જ તેનો આહાર સંભવિત થાય છે. અર્થાત બાદર નિગેને આશ્રય કરીને નિયમથી છએ દિશાએથી તેને આહાર થાય છે. કેમ કે બાદર નિગદ પૃથ્યાશ્રિત હોવાથી એ દિશામાંથી તેને આહારની સંભાવના છે. સ્થિતિના વિષયમાં પણ વનસ્પતિકાયિકની સ્થિતિ કફनेण' धन्यथा मे अन्त तनी छ, भने 'उकोसेणे' Gटथी "अंतो.