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________________ -- - - - - - प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१० सू०५ वस्तुतत्वनिरूपणम् २६३ इति विचार्य भगवान् स्याद्वादस्य समस्तदोषगोचरातिकान्तत्वात् स्याद्वादपक्षमालम्व्यैव उत्तरयति-'एगे वि अहं' इत्यादि । 'एगे वि अहं' एकोऽप्यहम् 'जाव अणेगभूयमावभविए वि अहे' यावत् अनेकभूतभाव मन्योऽप्यहम् अत्र यावत्पदेन 'दुवे वि अहं अक्खए वि अहं अन्वए वि अहं अवहिए वि अह' इत्यन्तस्य ग्रहणं भवतीति एकत्वद्वित्वादीनां विरुद्धत्वात् कथमित्येतदित्याशयेन पुनः पृच्छति क्योंकि आत्मा में ही थे सब भूतकालीन, वर्तमानकालीन और भविष्यस्कालीन परिणमन होते हैं । इसी प्रकार भूतकाल के बाद वर्तमानकोलिक परिणमन और वर्तमानकालिक परिणमन के बाद भविष्यत्कालीन परिणमन जो आत्मा में होते हैं वे उसकी अनित्यता बिना हो नहीं सकते हैं क्योंकि भिन्न २ परिणमनों में आत्मा में एक स्वभावता व्यवस्थितता एवं अव्ययता रह नहीं सकती है। इस प्रकार से प्रदर्शित इन प्रश्नों में एकतर पक्ष के स्वीकार में अपरपक्षीय दोष आता है ऐसा विचार कर भगवान् उसे स्वादाद की शैली से जो कि समस्त दोष गोचरातिकान्त है उत्तर देते हुए कहते हैं 'एगे वि अहं' हे सोमिल ! मैं एक भी हूं यावत् 'अणेगभूय' अनेक भूत, भाव और भव्य परिणमनोवाला भी हूँ यहां यावत् पद से 'दुवे वि अहं' इत्यादि वीच का सब पाठ संगृहीत हुआ है। प्रभु की अपने द्वारा कुन प्रश्नों के ऊपर स्वीकृति जानकर वह इस ख्याल से कि एकत्व द्वित्व आदि धर्म परस्पर में विरुद्ध हैं अतः एक ही जगह में इनकी मान्यता कैले घटित हो सकती है प्रभु से पुनः જ ભૂતકાળ સંબધી વર્તમાનકાળ સંબંધી પરિણમન થાય છે, એજ રીતે ભૂતકાળ પછી વર્તમાનકાલિક પરિણમન અને વર્તમાનકાલના પરિણમન પછી ભવિષ્યકાલ સંબંધી પરિણમન અ મામાં જે થાય છે, તે તેની અનિત્યતા વગર થઈ શકતી નથી. કેમ કે જુદા જુદા પરિણમનોમાં આત્મામાં એક સ્વભાવપણું વ્યવસ્થિતપણું અને અવ્યયપણું રહી શકતા નથી. આ પ્રમાણે કહેલા આ પ્રશ્નોના એક પક્ષને સ્વીકાર કરે તે બીજે પક્ષમાં દેષ આવી જાય છે. એમ વિચારીને ભગવાન તેને સ્થાદ્વાદની શૈલીથી ઉત્તર भा५i छ है-'एगे वि अहं' 3 मिस मे पछु यावत् 'अणे गभूय०' भने भूत, भाव मन सय परिणाभा पाणे। प छु: मलियां यावत्यथा 'दुवे वि अहं' इत्यादि सधणे या ग्रह राय छे. પતે કરેલા પ્રશ્નોને ઉત્તર પ્રભુએ સ્વીકાર રૂપે આપે તે જોઈને તે ફરીથી એવા વિચારથી કે એકવ, દિન વિગેરે ધર્મ પરસ્પર વિરુદ્ધ છે, જેથી એક જ સ્થળે તે બને છેવાની વાત કેવી રીતે ઘટી શકશે?
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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