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भगवतीसूत्र मक्ष्याः-भक्षयितुं योग्याः उपभोग्या इत्यर्थः अमक्ष्या वा-नोपभोगयोग्या वेति - प्रश्ना, भगवानाह-"सोमिला" इत्यादि । “सोमिला" हे सोमिल ! "सरिसवा: से भक्खेया वि अभक्खेया वि' सरिसवया मे भक्ष्या अपि अभक्ष्या अपि सरिसक्या, इति पदं प्राकृतशैल्या द्वयर्थकम् एकत्र सदृशवयसः-समानव्यस्काः अन्यत्र सर्पपका धान्यविशेषा इत्यर्थों भवति अर्थविशेपमाश्रित्य' उपभोगयोग्या अपि इत्युत्तरम् । एकस्यैवोपभोगयोग्यत्वानुपभोगयोग्यत्वरूपविरुद्धधर्माश्रितत्वं मत्वा पुनः पृच्छति-" से केणटेणं भंते !" तव केनाथैन भदन्त ! 'एवं वुचह सरिसत्रया मे भक्खेया वि अभक्खेया वि' एवमुच्यते यत् सरिसवया मे भक्ष्या अपि अभक्ष्या अपीति । अथार्थविशेषमाश्रित्य - भक्ष्यत्वाभक्ष्यत्वयोरुभयोरपि विषये भगवानाह- से नूर्ण' इत्यादि । 'से नूर्ण या अलक्ष्य है ? अर्थात् 'सरिसव' आप के द्वारा खाने योग्य हैं या खाने योग्य नहीं हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं । 'सरिसवा मे अक्खेया वि अभेक्खेया चि हे सोमिल ! 'सरिसव' मेरे द्वारा भक्ष्य भी हैं, और अभक्ष्य भी हैं जब यह सरिसव शब्द धान्यविशेष का वाचक होता है तब तो वह सरिसव खाने योग्य भी है ऐसा प्रभु ने कहा है और जब यह शब्द सदृशचया मित्र का वाचक होता है, तब वह भक्ष्य खाने योग्य नहीं है ऐसा प्रभुने कहा है। जब 'सरिसव' यह एक ही शब्द है तब उसमें भक्ष्यता और अभक्ष्यता कैसे युगपत् संभर्वित होती है ? इस बात को मानकर सोमिल प्रभु से पूछता है। 'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चह०' हे भदन्त । ऐसा आप किस कारण को लेकर कह रहे हैं कि 'सरिसव' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है ? इस विषय में अर्थ विशेष को लेकर प्रभु भक्ष्य अभक्ष्य का 'सरिसव' -'सरिसवा मे भक्खया वि अभक्खेया वि०' 8 सोभित 'सरिसव' लक्ष्य ખાવાલાયક પણ છે, અને અભય ન ખાવાલાયક પણ છે. “સરિસવ” શબ્દ ધાન્ય વિશેષને વાચક થાય છે. ત્યારે “સરિસવ ખાવા યોગ્ય પણ બને છે, સરિસવ એ શબ્દ સમાનવય-મિત્રવાચક થાય છે ત્યારે તે અભક્ષ્ય ખાવા લાયક હોતા નથી. આ પ્રમાણે પ્રભુને ઉત્તર સાંભળીને જ્યારે “સરિસવ એ એક જ શબ્દ છે, તે તેમાં એક સાથે ભયપણુ અને અભયપણું કેવી રીતે સંભવી શકે? તેમ વિચારીને સેમિ ફરીથી પ્રભુને એવું પૂછે छ ?--'सेकेणठेण भंवे ! एवं वुच्चई' डे मगवन् मा५ मे शायरी કહે છે કે--સરિસવી ભય પણ છે, અને અભક્ષ્ય પણ છે? આ વિષયમાં અર્થ વિશેષને લઈને પ્રભુ સરિસવમાં ભણ્ય અભક્ષ્યપણાનું પ્રતિપાદન