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भगवती वानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगइए जाणइ न पासई' अस्त्येकको जानाति परमाणुपुद्गल किन्तु न पश्यति केवांचित् पुरुषाणां सूक्ष्मपपदार्थविषयकं ज्ञानं भवति किन्तु दर्शनं न जायते इत्यर्थः श्रुतोपयुक्तः श्रुतज्ञानी श्रुतेर्दर्शनाऽभावात् 'अत्यंगइए न जाणइन पासई' अस्त्येकको न जानाति न पश्यति केषांचित् छमस्थानां परमावादिविषयकं ज्ञानमपि न भवति दर्शनमपि न भवती. त्यर्थः श्रुतोपयुक्तातिरिक्तस्तु न जानाति न पश्यतीति, 'छउमस्थे णं भंते ! मासे' पदार्थ विषयक ज्ञानदर्शन होते हैं या नहीं होते हैं ? इनके उत्तर में प्रभु कहते हैं, 'गोयमा' इत्यादि हे गौतम ! कोई एक छद्मस्थ मनुष्य परमाणुपुद्गल को जानता तो है पर वह उसे देख नहीं सकता है। तात्पर्य ऐसा है कि कितनेक छद्मस्थ पुरुषों को सूक्ष्म पदार्थ विषयक ज्ञान तो होता है किन्तु उन्हें दर्शन नहीं होता है 'श्रुतोपयुक्तः श्रुत. ज्ञानी श्रुते दर्शनाभावात्' इस कथन के अनुसार अंत में उपयुक्त हुए श्रुतज्ञानी को श्रुतपदार्थ में दर्शन का अभाव रहता है। अर्थात् श्रुतज्ञानी जिन सूक्ष्मादिक पदार्थों को श्रुत के बल से जानता है उनका उसे दर्शन प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है, इस कारण यहां ऐसा कहा गया है कि कितनेक छद्मस्थ मनुष्य परमाणु आदि सूक्षम पदाथों को जानते तो हैं शास्त्र के आधार से उनके ज्ञान विशिष्ट तो होते हैं। पर उनके साक्षात् दर्शन से वे रहित होते हैं । 'अस्थगइए न जाणइ न पालइ तथा कितनेक .छास्थ ऐसे होते हैं जो सूक्ष्मादिक परमाणु पदाथों को न जानते हैं और न देखते हैं । 'श्रुतोपयुक्तातिरिक्तस्तु न उत्तरमा प्रभु छ ?--"गोयमा!" त्याहि गौतम ! ७ मे स्थ મનુષ્ય પરમાણુ પુલને જાણે છે. પણ તે પુલને જોઈ શકતા નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે--કેટલાક છવાસ્થ પુરુષને સૂમ પદાર્થ સંબંધી જ્ઞાન सोडाय छ, ५२'तु म। तर मी शत नथा. श्रुतोपयुक्तः तज्ञानी श्रुते
भावात्" मा ४थन प्रमाणे श्रुतम उपयोगवाया श्रुशानी श्रुत पहाभा દર્શનને અભાવ રહે છે. અર્થાત્ શ્રુતજ્ઞાની સૂફમાદિ જે પદાર્થને શ્રી બળથી જાણે છે, તેનું તેને દર્શન-પ્રત્યક્ષ જ્ઞાન થતું નથી. તે કારણથી અહિંયાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે કેટલાક છદ્મસ્થ માણસ પરમાણુ વિગેરે સૂક્ષમ પદાર્થને જાણે છે, કારણ કે શાસ્ત્રના આધારથી તેને જ્ઞાન તે છે, પણ તેના સાક્ષાત્
शनी ते वयित २७ छ, “अत्थेगइए ण जाणइ न पासइ" तथा सा છવ એવા હોય છે, જે સૂક્ષમ પરમાણુ વિગેરે પરમાણુ યુદ્ધને જાણતા नथा भने मता ५ नथी. "श्रुतोपयुकातिरिक्तस्तु न जानाति न पश्यति"