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भगवतीसूत्रे टीका-'जीवाणं भंते!' जीवानां भदन्त ! 'पावे कम्मे जे य कडे' पापं कर्म यत् च कृतम् 'जे य कज्जइ जे य कज्जिस्सइ' यच क्रियते यच्च करिष्यते 'अस्थि याइ तस्स केइ णाणत्ते' अस्ति चापि तस्य किञ्चित् नानात्वम् हे भदन्त ! जीवानां यत् कर्म कृतं यत् कर्म इदानी क्रियते यच कर्म भविष्यत्काले करिष्यते, एतेषां कर्मणां परस्परं भेदो वर्तने नवेति प्रश्नः, भगवानाह-'हंता अस्थि' हन्त ! अस्ति हे मार्कदिक पुत्र! एतेषां कर्मणां जी-जानाम् अस्त्येव भेद इतिभावः । पुनः
पहिले बन्ध का स्वरूप कहा गया है सा यह बन्ध कर्म के ही होता है इसौसे अब कम सुत्र कहा जाता है।
'जीवा ण भंते ! पावे कम्मे जे य कडे जेय कजइ' इत्यादि।
टीकार्थ--'जीवाणं भते! 'हे भदन्त ! जीवों के जा 'पावे कम्मे' पाप कर्म हैं। 'जेय कडे कि जो पहिले किये जा चुके हैं। 'जे य कलई' जो अब उनके द्वारा किये जा रहे हैं। 'जे य कज्जिस्तह' और जो उनके द्वारा आगे किये जानेवाले हैं। 'अस्थियाइ तस्स केइ णाणत्तं' उनमें क्या कोई भेद है ? पूछने का अभिप्राय ऐसा है कि जीवोंने जो पापक्रम पहिले किये हैं, अथवा जे वर्तमान में वे कर रहे हैं तथा भविष्य. काल में जो वे करेंगे उन त्रिकालवी कर्मों में क्या आपस में भेद हैं ? या नहीं है ? ऐसा यह प्रश्न मान्दिक पुत्र अनगार ने किया है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंता अस्थि हा माऊन्दिक पुत्र ! जीवों के उन कृन क्रियमाण और करिष्यमाण पापकर्मों में भेद है। अब इस
બંધનું સ્વરૂપ કહેવાઈ ગયું છે, તે બંધ કમથી જ થાય છે જેથી સૂત્રકાર હવે કમ સૂત્રનું કથન કરે છે.
'जीवा णं भंते। पावे कम्मे जे य कडे जेय कज्जई' ४त्याही
टी -'जीवा णं भंते ! 3 समपन् ७वाना २ 'पावे कम्मे' ५५ शुभ छ, 'जेय कडे' २ ५९८॥ ४२रायु छ. 'जे य कज्जई' भनेर पत:भानमा तमा ४री २ छे. 'जे य कन्जिस्सई' भने २ भविष्यमा तमे। ४२. 'अस्थियाइ तस्स केइ णाणत्त' तमा शु. से छे ? पूछाना तु એ છે કે જીએ જે પાપ ભૂતકાળમાં કર્યા હોય અને જે વર્તમાનમાં કરી રહ્યા હોય તેમજ જે ભવિષ્યમાં કરવાના હોય જે ભૂતકાળમાં કર્યા હોય વર્તમાનમાં કરી રહ્યા હોય અને ભવિષ્યમાં કરવાના હોય તે ત્રણે કાલ સંબંધી કર્મોમાં પરસ્પરમાં શું કંઈ ભેદ છે ? અગર નથી ? આ પ્રમાણે भावीपुत्र मनपरे पूछयु छ. तना उत्तरमा प्रभु ४९ छे -हता अत्थि' હા માકદિપુત્ર જીવોએ તે કરેલા કૃત, ક્રિયમાણુ, કરતા અને કરિષ્યમાણુ