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भगवतीने 'वन्नओ' वर्णकः-अस्यापि वर्णनं पूर्णभद्रकवदेव कर्त्तव्यम् , 'जाव परिसा पडि गया' यावत् परिपत् पतिगता, यावत्पदेन स्वामी समवस्त इत्यारभ्य धर्मकथा कथिता इत्यन्तं सर्वमपि प्रकरणमनुस्मरणीयम् , 'तेणं कालेणं तेणं समरण' तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'अंतेवासी माकंदियपुत्ते नाम अणगारे' अन्तेवासी-शिष्यो मांकन्दिकपुत्रो नामानगारः, 'पगइभदए' प्रकृतिभद्रका 'जहा मंडियपुत्ते' यथा मण्डिकपुत्रः, यथा मण्डिकपुत्र इत्यनेन इदं सचितं भवति 'पगइ उवसंते पंगइ पयणुकोहमाणमायालोभे' प्रकृत्युपशान्तः प्रकृतिमतनुक्रोधमानमायालोमः जिसका नाम गुणशिलक था। 'वन्नओ' इसका वर्णन भी पूर्णभद्र
चैत्य के जैसे ही समझ लेना चाहिये । 'जाव परिसा पडिगया' यहां यावत्पद से 'स्वामी समवसृतः' यहां से लेकर 'धर्मकथा कथिता यहां तक का सब प्रकरण लगाया गया है ऐसा जानना चाहिये । 'तेणं कालेणं तेणं समएण' उस काल में और उस समय में 'समणस्स भगवओ महावीरस्त जाव' श्रमण भगवान महावीर के अंतेवासी' शिष्य 'माकंदियपुत्ते नाम अणगारे' मान्दिक पुत्र नामके अनगार थे। ये 'पगइभद्दए' प्रकृति से भद्र थे। 'जहा मंडियपुत्ते' जैसे प्रकृति से मण्डित पुत्र थे, वैसे ही ये थे। 'जहा मण्डितपुत्ते' इस पद से यह सचिन होता है 'पगह उवसंते पगहपयणु कोहमाणमायालोभे कि ये स्वभावतः उपशान्त थे। स्वभावतः इनकी क्रोध, मान, माया और २भा शुशित नामर्नु थैत्य-Gधान तु'. 'वण्णओ' तेनु वान पून येत्यानी भा४ सभा. 'जाव परिसा पडिगया' मा पायम आवेत या१५४थी 'स्वामी समवसृत.' मलिथी मारली. 'धर्मकथा कथिता' અહિ સુધીનું સઘળું પ્રકરણ સમજી લેવું. અર્થાત્ મહાવીર સ્વામી પધાર્યા. मन तमामे धर्मथा समावी त्यां सुधानु' ४थन सभर तेण कालेणं देणं समएणं' a आणे भने समये 'समणस्स भगवओ महावीरस्त्र' श्रम सागवान महावीर स्वामीना 'अंतेवासी शिष्य 'माकदियपुत्ते नाम अणगारे' भादी नामना मना२ ता. तो 'पगइभहए' प्रकृतिथी भाद्र ता. 'जहा मंडियपुत्ते' २वी रीते मलितपुत्र प्रतिथी मद्र ताव मांडीपुत्र પણ ભદ્રપ્રકૃતિ હતા. અહિં યાવતું પહથી નીચે પ્રમાણેને પાઠ ગ્રહણ થયે છે. 'पगइउपसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोमे ते २१साथ शid. sai