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દૂધ
भगवती सूत्रे
तुम्, 'जाव धम्ममाइक्खिउ' यावद् धर्ममाख्यातुम् । अत्र यावत्पदेन 'सयमेव मुंडाविउ सयमेव सेहाविउ, सयमेव सिक्खाविउ, सयमेव आयारगोयरविणयवेणइयचरण करणजायामायावत्तियं' इत्यन्तस्य ग्रहणं भवति । एतस्य व्याख्या द्वितीयशतके प्रथमोद्देश स्कन्दकचरिते द्रष्टव्या । 'तर णं सुणिसुन्न अरहा ' ततः खलु - श्रेष्ठिनः प्रार्थनाया अनन्तरं खलु मुनिसुव्रतोऽर्छन् 'कत्तियं सेट्ठि गमट्टसहस्सेणं सद्धि सयमेव पव्वावे' कार्त्तिकं श्रेष्ठिन' नैगमाण्यसहस्रेण सार्द्ध स्वय मेव प्रत्राजयति - दीक्षयति यावद्धर्ममा रूपाति-धर्मोपदेशं ददातीत्यर्थः, धर्मोपदेश पकारमाह - 'एन' इत्यादि, 'एवं देवाणुप्पिया' एवम् - मदुक्तकथनानुरूपेण हे देवानुप्रिय ! ' ' गन्तव्यम् जीवरक्षार्थं भूमिं पश्यन्नेव गमनं कर्त्तव्य मित्यर्थः ' एवं चिट्टिपण्यं' एवम् शुद्धभूमौ ऊर्ध्वस्थानेनेति शास्त्रोक्तकथनप्रकारेणैव स्थातव्यम् 'जाव संजमियवं' यावत् संघमितव्यम् प्राणादिसंयमे संयतितव्यम्, मुडावि, सयमेव सेहाविडं, सयमेव सिक्खाविडं आधार गोयरवि. णयवेणइयचरणकरण जायामायावत्तियं' यहां तक का पाठ गृहीत हुआ है। इन पदों की व्याख्या द्वितीय शतक के प्रथम उद्देशक में स्कन्दक चरितमें की गई है अतः वहीं से देख लेना चाहिये। 'तए णं मुणिसुए० कार्तिक सेठ की इस प्रार्थना के बाद मुनिसुव्रत अर्हन्त ने उस कार्तिकसेठ को १००८ वणिजनों के साथ २ ही अपने हाथ से ही भागवती दीक्षा प्रदान की और धर्मका उपदेश दिया । धर्मोपदेश का प्रकार इस प्रकार से है- 'एवं देवाणुपिया !' मदुक्त कथन के अनुसार हे देवानुप्रिय ! 'एवं गतब्बं०' जीव रक्षा के लिये भूमिको देखते हुए ही चलना चाहिये । शुद्धभूमि में शास्त्रोक्त पद्धति के अनुसार ही खडे होना चाहिये। 'जाव संजमिय' प्राणादिसंयम में यतना रखनी चाहिये। यहां यावत्पद से 'एवं निसीपव्वं, एवं तुघट्टियन्वं
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मुंडा विउ, सयमेव सेहाविउ, सयमेव सिक्खाविउ, खयमेव आधार गोयरविणयवेणइयचरण करणज (या मायावत्तिय" अहि सुधीना पाहता संग्रह थयो छे. भा પદ્માની વ્યાખ્યા બીજા શતકના પહેલાં ઉદ્દેશામાં સ્કન્દકના ચરિત્રમાં આવી छे. तेथी त्यांथी समछ सेवी 'तर णं मुणिसुन्त्रर' अतिशेहनी या आर्थना પછી મુનિસુવ્રતમહુને તે કાર્તિકશેઠને એક હજાર આઠ કૂિજના સાથે પેાતાના હાથથી ભાગવતી દીક્ષા આપી અને ધર્મના ઉપદેશ આપ્યું. ધમના उपदेशना प्रहार या प्रमाणे छे. 'एवं देवाणुपिया' हे देवानुप्रिय ! भे ह्या प्रभाये 'एवं गंतव्वं' व रक्षा भाटे भूमि पर न४२ शभी ले लेने यासवु જોઈએ શુદ્ધ ભૂમિમાં શાસ્ત્રમાં કહેલ પદ્ધતિ પ્રમાણે જ ઉભું' રહેવુ' જોઇએ. 'जाव संज मियां' प्रशाद्धि संयभभां यतना शमवी लेह मे. मडियां याव
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