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प्रमैयखन्द्रिका टीका श०१८ उ०२ ०२ कार्त्तिकश्रेष्ठिनः दीक्षादिनिरूपणम् ६२९ लोए जाव अणुगामियताए भविस्सर, एवामेव मम वि एगे आया भंडे इड्डे कंते पिए मणुन्ने मणामे एसमे नित्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सर, तं इच्छामि णं भंते ! गम सहस्से सद्धिं देवाणुप्पिएहिं सयमेव पव्वाविउं जाव धम्ममा इक्खि । तर सुणिसुव्वए अरहा कत्तियं सेट्ठि णेगम सहस्सेणं सद्धिं सयमेव पव्वावेइ जाव धम्ममा इक्खइ एवं देवाणुपिया ! गंतव्वं, एवं चिट्ठियन्नं जाव संजभियव्वं, तए
से कत्तिए सेडि नेगम सहस्त्रेण सद्धिं मुनिसुव्वयस्स अरहओइयं एयारूवं धम्मियं उवएसं सम्मं पडिवज्जइ तमाणार तहा गच्छइ जाव संजमइ । तए णं से कत्तिए सेट्टी गमहूसहस्सेणं सद्धिं अणगारे जाए, ईरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी | तणं सेकचिए अणगारे मुनिसुव्वयस्स अरहओ तहारूवाणं थेरागं अंतियं. सामाइयमाइयाई चोदस पुव्वाइं अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ छडम जाव अवाणं भावेमाणे बहुपडि पुन्नाई दुबालसवासाई सामन्नपरियागं पाउणइ पाउजित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेइ झोसित्ता सट्टिं भत्ताई अणसणाए छेदेइ छेदित्ता, आलोइयपडिक्कंचे जाव कालं किच्चा सोह* कप्पे सोहम्मडेंस विमाणे उबवाय सभाए देवसय णिज्जंसि जाव सकदेविंदत्ताए उववन्ने । तए णं से सक्के देविंदे देवराया अहुणोववन्ने सेसं जहा गंगदत्तस्स जाव अंतं काहिइ नवरं ठिई दो सागरोवमाई सेसं तं चैव । सेवं भंते! सेवं भंते ! सि, ॥सू० २॥ ॥ अट्टरससए बीओ उद्देसो समतो ॥