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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१ ०१ प्रथमाप्रथमत्वे शरीरद्वारम् ५८५
___ अथ त्रयोदशं शरीरद्वारमाह-"ससरीरी" इत्यादि। "ससरीरी जहा आहारए" सशरीरो यथा आहारका, अयमपि आहारकर अप्रथम एवं सशरीरमावस्य अनादौ संसारेऽनेकशः प्राप्तत्वात, "एवं जाव कम्मगसरीरी" एवं यावत् कार्मणशरीरी अत्र यावत्पदेन औदारिकवैक्रियाहारकतेजसशरीराणां संग्रहो भवति एवंचानादिसंसारेऽन्यतमशरीरस्य जीवे न अनन्तशो लब्धत्वाद् अप्रथम एव नतु प्रथम । “जस्स जं अस्थि सरीरं" यस्य यदस्ति शरीरम् , यस्य जीवस्य यच्छरीरं भवति तस्य तदेव शरीरं वक्तव्यम् । अवेदक होकर हो सिद्ध बनते हैं । इस प्रकार यह अवेदकता सिद्धों में प्रथम है। क्योंकि अवेदकतायुक्त सिद्धत्वपर्याय का लाभ जीव को इसके पहिले कहीं पर भी और कभी भी नहीं हुआ है।
बारहवां वेदद्वार समाप्त
१३ वा शरीरवार इसमें प्रभुने ऐसा समझाया है कि-'ससरीरी जहा आहारए' सशरीर भाव अनादिसंसार में अनन्तयार प्राप्त होने से आहारक के जैसा वह . अप्रथम ही है 'एवं जाव कम्मगसरीरी' इसी प्रकार से यावत्-औदारिक शरीर भाव, वैक्रिय शरीरभाव, तैजसशरीर भाव, और कार्मणशरीर भाव ये सब भी अनादिसंसार में जीव के द्वारा लब्ध हुए है अत: ये सब अप्रथम ही हैं । प्रथम नहीं हैं। 'जस्स ज अस्थि सरीरं' जिस को जो शरीर होता है, उस जीव को वह शरीर कहना चाहिये। इस प्रकार उस शरीर की अपेक्षा उसमें अप्रथमता का कथन करना चाहिये,
જીવ છે, તે અવેક થઈને જ સિદ્ધ બને છે. આ રીતે આ અદકપણુ સિદ્ધોમાં પ્રથમ છે. કેમકે અદકતાવાળા સિદ્ધને પિતાની પર્યાયની પ્રાપ્તિ જીવને આનાથી પહેલાં કોઈ પણ સમયે કે કેઈપણ સ્થળે થઈ નથી,
છે બારમું વેદાર સમાપ્ત છે
તેરમું શરીરદ્વાર मा रमा प्रभुमे गे समन्यु छ 'ससरीरी जहाँ आहारए' અનાદિ સંસારમાં સશરીર ભાવ અનંતવાર પ્રાપ્ત થવાથી આહારકોની માફક सशरीरी मप्रथम १ छ. ' एवं जाव कम्प्रगसरीरी' से शत यावत्ઔદ્યારિક શરીરભાવ, વૈકિયશરીર ભાવ, આહારક શરીરમાવ, તૈજસશરીર ભાવ અને કામણુશરીરભાવ આ બધા અનાદિ સંસારમાં જીવને અનન્તવાર प्राप्त थया छ. रथी त सधा मप्रथम १ छे. प्रथम नथी. 'जस्म जं अस्थि सरीरं'२०२२ शरीर खाय छ, न ते शरीर पु:यशत