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भगवती सूत्रे प्रयोगात्मपदमात्मीयपरकम् तेन आत्मीयेन मनोवाक्कायव्यापारेण निर्व र्त्तितं संपादितं यत् अधिकरणं तत् आत्मप्रयोगनिवर्तिनमधिकरणम्, परान् अन्यान् प्रागातिपातादिपापकर्मणि प्रवर्तनेन निर्वर्तितं संपादितं यद वचनाद्यधिकरणं तत् परमयोग निर्वर्तितमधिकरणम्, आत्मपरमयोगाभ्यां निर्वर्तितमधिकरणं निर्वर्तितमिति । गौतमः पृच्छति से केणद्वेगं भंते एवं बुच्चर' तत्केना1 चैन भदंत एवमुच्यते ? भगवानाह - 'गोयना' हे गौतम! 'अविरह' पडुच्च' अविरत्यपेक्षया त्रिविधमधिकरणं तेषां न विरुध्यते इति, 'से तेणट्टेणं जाव तदुभयनिर्वर्तित होता है ? यहां आत्मापद आत्मवाचक (जीव ) है इसके आत्मीय मन वचन काय के व्यापार से जो अधिकरण निर्वर्तित होता है वह अधिकरण आत्मप्रयोग निर्वर्तित कहा गया है। तथा जो दूसरों को प्राणानिपात आदि पापकर्म में लगाने से बचनादिरूप अधिकरण निर्व. र्तित होता है वह परप्रयोग निर्वर्तित अधिकरण है एवं जो आत्मप्रयोग एवं परप्रयोग इन दोनों से अधिकरण निर्वर्तित होना है वह अधि करण तदुभयनिर्वर्तित अधिकरण है । अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं- से केणणं भंते । एवं बुच्चर, " हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि अधिकरण आत्मप्रयोग परप्रयोग एवं तदुभय प्रयोग निर्वर्तित होना है ? इससे उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा 1 अविरति पडुच्च' हे गौतम ! अविरति को आश्रित करके ऐसा कहा गया है - अर्थात् एकेन्द्रिय तक के जीवों के मन वचनादि अधिकरण के अभाव में अविरति की अपेक्षा से तीनों प्रकार का भी अधिकरण અહિયા આત્મપદ આત્મીય આત્માવાચક छे. तेथी आत्मीय भन, વચન, તે શરીરના વ્યાપારથી જે અધિકરણ નિતિત બને છે થાય છે. તે અધિકરણુ આત્મપ્રયાગ નિતિ કહેવાય છે. તેમજ તે બીજાને પ્રાણાતિ પાત વિગેરે પાપ કમમાં લગાડવાથી વચન વિગેરે રૂપ અધિકરણ નિતિ ત હાય છે. તે પરપ્રયાગ નિવ†તિત અધિકરણ છે. હવે ગૌતમ સ્વામી પ્રભુને मेधुं पूछे छे " से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ " हे भगवन् ! मेनुं आप शा કારણે કહે! છે કે અધિકરણ, આત્મપ્રયાગ, પરપ્રયાગ, અને તદ્રુભયપ્રયાગ 'निर्ऋर्तित होय हे ? तेना उत्तरमा प्रलु उडे छे ! 'गोयमा ! अविरति पहुच्च' હે ગૌતમ ! અવિરતિના આશ્રય કરીને એ પ્રમાણે કહ્યું છે. અર્થાત એકેન્દ્રિયાદિક જીવેને મનવચન:દિ અશ્વિકરણના અભાવમાં અવિરતિની અપેક્ષાએ ત્રણે પ્રકારનું