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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०१७ उ०२ सू०४ जोवस्य रूप्यरूपित्वनिरूपणम् ४१७ स्वेन रूपेण स्थातुं प्रभुः किम् ? इति प्रश्नः, भग II 'पा इणढे समझे' नायमर्थः समर्थः 'जाव चिहित्तए' यावत् स्थातुम् , अत्र यावत्पदेन 'से जाव' इत्या रम्य विउन्धिचा ' इत्यन्तस्य ग्रहणम् ‘गोयमा! हे गौतम ! 'अहं एयं जाणामि अहमेतत् वक्ष्यमाणप्रश्ननिर्णयभूतं वस्तु जानामि विशेषतोऽर्थावधारणेन 'जाव जं णं तहागयस्स' यावत् यत् खलु तथागतस्य यावत्पदेन 'अहमेयं पासामि' इत्या. रभ्य 'मए एवं अभिसमन्नागयं' इत्यन्तस्य वर्तमानभूतकालिकस्य प्रकरणस्य संग्रहों विज्ञेयः । तथागतस्य देवत्वादिपर्यायविमुक्तस्य, 'जीवस्स' जीवस्य 'अरू. विस्स' अरूपिणः 'आम्मस्स' अकर्मणः 'अरागरस' अरागस्य 'अवेयस्स' अवेदस्य हे भदन्त ! जो जीव रूपादि रहित है यह क्या अपने आपको रूपादिमान् रूप से विकुर्चणा करके रह सकने में समर्थ है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'णो इणष्टे सम?' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 'जाव चिटित्तए' यहां से लेकर 'विउव्यित्ता णं' यहां तक का पाठ ग्रहण किया गया है। 'गोयमा ! अहं एयं जाणामि जाव जण तहागयस्त जीवस्स' हे गौतम! विशेषरूप से अर्थ का निश्चय कर लेने के कारण मैं वक्ष्यमाण प्रश्न द्वारा निर्णयभूत वस्तु को जानता हूं, 'जावजं गं तहागयस्स' यहां यावत्पद से 'अहमेयं पासामि' इस पाठ से लेकर 'मए एयं अभिसमन्नागय' यहाँ तक का वर्तमान एवं भूतकालिक प्रकरण का संग्रह हुआ है। इस प्रकार देवत्वादिपर्याय से विमुक्त जीव के जो कि 'अरूविस्त' अरूपी हो चुका है। अकम्मरस' कर्म रहित हो चुका है, अरागस्स' रागरहित સ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછયું છે કે હે ભગવન ! જે જીવ રૂપ વિગેરેથી રહિત છે. તે શું પિતે પિતાને રૂપાદિમાન રૂપની વિદુર્વણા કરીને રહિ श छ ? ना उत्तरमा प्रभु के छ है “जो इणट्टे समढे" . गौतम । मा म सरासर नथी. "जाव चिद्वित्तए" भडियो यावत पहथी "से जीवे" से पहथी सन "विउन्वित्ता णं" माह सुधीना पा8 अडथय। छे. "गोयमा ! अहं एवं जाणामि" : गौतम विशेष ३५थी अथन। નિશ્ચય કરવાને કારણે હું વયમાણ પ્રશ્ન દ્વારા નિર્ણયભૂત વસ્તુને જાણું ७. "जाव ज णं तहागयस्स" मडियां यावत् ५४थी "अहमेय पासामि" मे पायथा as "मए एवं अभिसमन्नागयं" महि सुधीना मान मन ભૂતકાળના પ્રકરણને સંગ્રહ થયો છે. આ રીતે દેવત્વાદિ પર્યાયથી મુક્ત થયેલ सपने २१ "अरुविस्स" म३थी थन्यूये। छ. "कम्मस्स" भ २खित थ यूयो छे. “अरागस्स" २६१ २हित यई न्यूये। छे. “असरीरस्स" शरीर २डित
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