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भगवतीसरे किरियाहिं पुष्टा' तेऽपि खलु जीवाः कायिक्या यावत् पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टाः २ । 'अहे णं भंते !' अथ खलु भदन्त ! ' से कंदे अप्पणो०' तत् कन्दम् आत्मनो गुरुकतया ३ प्रपतत् तत्र देशे स्थितान यान् जीवान् प्राणेभ्यो व्यपरोपयति, तत्र कन्दस्य पवालयितुः प्रपातयितुः पुरुषस्य कति क्रियाः भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह'जाव चउहि पु?' यावत् चतसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः स पुरुषः । अत्र यावत्पदेन 'गोयमा! जावं च णं से कंदे अप्पणो गुरुयत्ताए जाव जीवियाभो ववरोवेइ तावं चणं से पुरिसे काइयाए' इत्यन्तं पदसन्दर्भस्य ग्रहणं भवति, एतादृशः पुरुषः चतुः क्रियया स्पृष्टो भवति प्राणातिपाते तस्य साक्षात्कारणत्वाभावाद इति ३ । 'जेसिं कन्द निष्पन्न हुभा है । 'ते विणं जीवा पंचहि किरियाहिं पुट्ठा' वे जीव भी पांचों ही क्रियाओं से युक्त होते हैं २, 'अहे णं भंते ! से कंदे अपणो अप गौतमने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! वह कन्द अपने भार से गिरता हुआ उस जगह में रहे हुए जीवों को प्राणों से व्यपरोपित करता है उस कन्द को गिरानेवाले पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? तात्पर्य ऐसा है कि वृक्ष के कन्द को यदि कोई पुरुष हिलाता है, और हिलाते २ ही वह कन्द अपने ही भार से टूटकर जमीन पर गिर पडना है तो उसे जमीन पर रहे हुए प्राणादि. प्राण से रहित हो जाते हैं-अत: उस कन्द को हिलानेवाले उस पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं-तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जाव चाहिं पुढे' यावत् वह पुरुष चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। यहां यावत् पद से 'गोयमा ! जावं च णं से कंदे अप्पणो गुरुयत्साए जाव जीवियाओ ववरोवेह तावं च णं से पुरिसे काहयाए' यहां तक का पाठ जीवा पंचहि पुट्ठा" aw पशु पांय लियासी पाणा थाय छे, (२) अहेणं भंते ! से कहे अप्पणो" सावन ४ तान साथी पनि ते જગાએ રહેલા જીના પ્રાણે છોડાવે છે. તે તે કંદને પાડવાવાળા પુરુષને કેટલી ક્રિયાઓ લાગે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે વૃક્ષના કંદને જે કંઈ પુરુષ હલાવે અને હલતાં હસતાં જ તે કદ પિતાના ભારથી ટૂટીને જમીન પર પડી જાય છે તે જમીન પર રહેલા પ્રાણાદિ પિતાના પ્રાણથી છૂટી જાય છે. અર્થાત્ મરી જાય છે. જેથી, તે કંદને હલાવવાવાળા તે पुरुषन ४ी या छ ? तो तना उत्तरमा प्रभु ४३ छ है "जाव घउहि पुढे" यावत् ते पुरुष या२ यामाथी स्पृष्ट थाय छे. मडिया यावत् ५४थी "गोयमा जावं च णं से कंदै अपणो गुरुयत्ताए जाव जीवियाओ पवरोवेइ तावं च णं से पुरिसे काइयाए" माहि सुधान। ५४