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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१६ उ० ६ सू० ४ गन्धग्रहणनिरूपणम् २५१ 7 विकिरिज्जमाणाणं वा' इत्यादिनां सङ्ग्रहो भवति तत्र 'निविभज्जमाणाणं. वा' निर्भिद्यमानानां वा प्रावल्याभावेन अधोविदीर्यमाणानाम् उत्कीर्यमाणानाम् ऊर्ध्वं विक्षिप्यमाणानाम् विकीर्यमाणानाम् इतस्ततो विक्षिप्यमाणानाम् | 'ठाणाओ वा ठाणं संकामिज्जमाणाणं वा' स्थानतो वा स्थानं संक्राम्यमाणानाम् - एकस्मात् स्थानात् स्थानान्तरं प्रतिनीयमानानाम् 'कि कोडे वाइ जात्र के यई वाइ' कि कोष्ठो वाति यावत् केतकी वाति ? इह यावत्पदेन पत्र त्राति चोयं वाति तगरो वाति कोष्ठादिगम्वद्रव्यविशेषो दूरादागत्य घ्राणेन्द्रियेण गृहीतो भवति किमिति मनः । भगवानाह - ' गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा ।' हे गौतम | 'नो कोट्ठे वा जाव नो केई बाइ' नो कोष्ठो वाति यावद् नो केतकी वाति यावत्पदेन पत्रादीनां संग्रहो भवति दूरादागत्य वाससमुदायो घ्राणगतो न भवतीत्यर्थः।-ग्राह्य 'निभिज्नमाणाणं वा, उचिहरिज्जमाणाणं वा विधिकरिज्जमागाणं वा 'इत्यादि पदों के अनुसार उन्हें नीचे रखने पर या नीचे इधर उधर फेंकने पर था, ऊपर की ओर इधर उधर बिखेरने पर या 'ठाणाओ वा ठाणं संकामिज्जमाणाणं वा' एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने पर 'किं कोड़े बाइ, जाव केयईवाह' जो वास आती है उसमें क्या कोष्ठादिगन्ध द्रव्य दूर से ओकर घ्राणेन्द्रिय के साथ सबन्धित होता है - अर्थात् घ्राणेन्द्रिय द्वारा गृहीत होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा । नो कोट्ठेबाह जान नो केयईबाई हे गौतम ! न कोष्ठ- सुगन्धद्रव्य - घाणेन्द्रिय द्वारा गृहीत होता है और न सुगन्ध द्रव्यरूप केतकी द्रव्य गृहीत होता है किन्तु उस गन्ध के साथ रहे वहां के पुल घ्राणेन्द्रिय द्वारा गृहीत होते हैं । तात्पर्य कहने की यह है कि गन्ध द्रव्य कि जिसकी वह वास है वह आकर घ्राणेन्द्रिय के . रीचमाणा वा विक्किरीज्जमाणाणं वा' घत्यादि यहो अनुसार तेने निये રાખીને અગર નીચે આમ તેમ ફેંકીને અથવા ઉપરની તરફ આમ તેમ विमेरीने अथवा 'ठाणाओ वा ठाणं संकमिज्जमाणाणं वा' मे स्थानथी जीने स्थाने सर्व भवाथी 'कि कोट्टेवाइ जाव केयई वाई' ? सुगंध आये छे. तेभां શુ કેષ્ટાદિ સુગંધ પદાથ દૂરથી આવીને ઘ્રાણેન્દ્રિયની સાથે મળે છે, અર્થાત્ धाद्रियथी श्रद्धषु थाय छे ? तेना उत्तरमां भगवान् ! छे! 'गोयमा ! नो कोट्ठेबाई जाव नो केयईवाई' हे गौतम! सुगंधद्रव्य प्रायेद्रियथी ग्रहयु थ નથી. અને સુગધ દ્રશ્ય રૂપ કેતકી દ્રવ્ય પશુ ગ્રહણ થતું નથી પરંતુ તે ગધની સાથે રહેલા ત્યાંના પુગલે પ્રાણેન્દ્રિય દ્વારા ગ્રહણ થાય છે. કહેવાનું
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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