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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० ६ सू० ३ महावीरस्य दशमहास्वप्नाः २२५ अर्थपरिच्छेदवाचकस्तेन गणिनाम्-अर्थपरिच्छेदानाम् पिटकमिय पिटकम्आश्रय इति गणिपिटकम् अथवा गणो गच्छो गुणनणो वा सोऽस्यास्तीति गणी = आचार्यस्तेषां गणिनाम् आचार्याणाम् पिटकमिव - सर्वस्वभाजनमित्र गणिपिटकम् 'आघवे ' आख्यापयति सामान्यतया विशेषतया वा 'पन्नवेह' प्रज्ञापयति - चचनपर्यायादिभेदेन कथयति 'परुवेइ' प्ररूपयति-स्वरूपतः कथयति 'दंसेइ' दर्शयति-उपमानोपमे भावेन कथयति 'निदंसे ' निदर्शयति-कथंचित्, अगृह्णतामपि परमकृपया निश्चयेन पुनः पुनर्दर्शयति इति उनसे ' उपदर्शयतिपरानुकम्पया भव्य कल्याणापेक्षया वा निश्वयेच पुनः पुनः कथयति । 'तैं जहा '
पर्यायादि के भेद से उसकी प्रज्ञापना की है, 'परूह' स्वरूप से उसकी प्ररूपणा की हैं । " दंसेह उपमान उपमेयभाव से उसका कथन किया है । निदंनेह' नहीं ग्रहण करनेवाले जीवों को भी पर मकृपा से बार २: उल्टे दिखलाया-अर्थात् उन्हें उसका बाद में उपदेश 'सुनाया 'उवदंसेह' दुरों को उनके कल्याण की भावना से यो भव्यजीवों के हित होने की भावना से पुनः पुनः उनके प्रति उसे - कहा। यहां गणि शब्द अर्थपरिच्छेद का चावक है, इलसे यह गणिपिटकरूप द्वादशाङ्ग अर्थपरिच्छेदों का free (मंजूषा पेटीस्वरूप ) के जैसा पिटक है- अर्थात् आश्रय है । अथवा गण नाम गच्छ अथवा गुणगण, यह जिस के होता है वह गणी- आचार्य होता है । यह द्वादशाङ्ग उन गणियों का - आचार्यों का सर्वस्वभाजन के जैसा होना है । इसलिये इसे गणिपिटक कहा गया है । 'तं जहा' यह गणिपिटक
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४री छे. “परूवेइ” स्व३पथी तेनी अश्या श्री छे "दंसेइ” उपमान ३५भेयलावथी तेनु' उथन ४यु छे. ' निदंसेइ" उपदेश श्रद्धषु न मनारा भवाने પણ ઘણી જ કૃપાથી વારવાર તેને દૃષ્ટાંતપૂર્વક ખતાવ્યું અર્થાત્ તેને वारंवार उपदेश समजाव्या. " उवदसेइ” श्रीमना उद्याशुनी भावनाथी અથવા ભવ્ય જીવેના હિંતની ભાવનાથી વારવાર તેઓને ઉપદેશ આપ્યા. અહિયાં ગણિશબ્દ અર્થ પરિચ્છેદના વાચક છે. તેથી આ ગણિપિટકરૂપ દ્વાદશાંગ અર્થ વિચ્છેદે'નુ' પિટક (માષા-પેટી)ની જેમ પિટક છે. અર્થાત્ આધાર છે. અથવા તે! અણુનામ ગચ્છનું અથવા ગુણગણનુ છે. આ ગણુ જેને થાય છે એવા તે ગણી-આચાય હાય છે આ દ્વાદશાંગ તે ગણિયાને– આચાર્ચીને સર્વીસ્વભાજનની જેમ હાય છે. તેથી આને ગણિપિટક કહેવામાં मा०यु छे "तं जहा " या गधिपिट मा नीथे मतावेव नाभौथी બાર भ० २९