SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेद्रिका टीका श० १६ उ०५ सू०२ शक्रेन्द्रविषयकप्रश्नस्पष्टीकरणम् १४३ 1 दृष्टिमतम् सम्यगृष्टिः पुनराह 'तए णं' इत्यादि 'तए णं से अमायिमम्भदिट्ठि उवत्रन्नए देवे' ततः खलु सोऽपायी सम्यग् दृष्टयुपपन्नको देवः 'तं मायिमिच्छाassai देवं एवं वयासी" तं मायिमिध्यादृष्टयुपपन्नकं देवम् एवमवादीत् 'परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया' परिणममानाः पुद्गला परिणताः, नो अपरिणताः ये पुकाः परिणामक्रियां प्राप्नुवन्ति ते परिणता एव कुतः वर्तमानानां भूतस्थम् ? तत्राह - ' परिणमंतीति पोग्गला परिणया नो अपरिणया ' परिणमन्तीति पुद्गलाः परिणताः, नो अपरिणताः परिणमन्तीति कृत्वा पुद्गला परिणता एवं नो अपरिणताः । 'परिणमन्ति' इति तदैव वक्तुं शक्यते यदा परिइसके उत्तर में 'तए णं से अमाथिसम्मदिविन्नए देवे तं माथि मिच्छदिन्निगं देवं एवं बयासी' उस अमायी सम्यग्दृष्टिउपपन्नक देव ने उस मायिमिथ्यादृष्टिउपपन्नकदेव से ऐसा कहा 'परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया' परिणममाण पुद्गल परिणत माने गये हैं अपरिणत नहीं। जो पुलपरिणाम क्रिया को प्राप्त कर रहे हैं वे परिणत हैं क्योंकि 'परिणमतीति पोग्गला परिणया नो अपरिणया' 'परिणमंति' ऐसा तब ही कहा जा सकता है कि जब परिणाम क्रिया का उनमें सद्भाव होता है । नहीं तो परिणाम क्रिया के असद्भाव काल में भी यदि 'परिणमंति' ऐसा कहा जावेगा तो जैसा यह यहां कहा जाता है वैसा ही अन्यत्र भी ऐसा ही कहा जाना चाहिये जब परिणाम का सद्भाव हो रहा है तब માનવામાં આવતા નથી પરંતુ તે અપરિણત જ માનવામાં આવે છે. આ પ્રમાણેનું માયી મિથ્યાદૃષ્ટિનું કથન સાંભળીને તેના ઉત્તરમાં દ 'तए णं से अमाथिसम्मदिट्टिउवन्नए देवे तं मायिमिच्छादिट्टिउववन्नगं देवं एवं वयासी " તે અમાયિ સભ્યશષ્ટ ઉપપન્નક દેવે તે માયી મિથ્યાષ્ટિ ઉપપન્નક દેવને या प्रभाषे ऽह्यु' “परिणममाणा पोगला परिणया नो अपरिणया" परिशुभમાન્ (ફેરફાર થતા) પુદ્ગલ પરિણત માનવામાં આવે છે. અપરિણત માનવામાં આવતા નથી જે પુદ્ગલ પરિણામ ક્રિયાને પ્રાપ્ત કરી રહ્યા છે તે પરિણત ४ . भ " परिणमंतीति पोग्गला परिणया नो अपरिणया परिणमंति " એવું ત્યારે જ કહી શકાય છે કે જ્યારે પરિણામ ક્રિયા તેનામાં રહેલી હાય नहि तो परिणाम डियाना असद्दलाव - अविद्यमानपाशुभां पशु ले " परिण मंति" मे हेवामां आवे तो नेवी रीते मडिया हवामां आवे छे. તેવી જ રીતે બીજે પશુ એવું જ કહેવાવુ જોઈએ જ્યારે પરિણામના સદ્ભાવ यह रह्यो छे. त्यारे " परिणमंति" मे रीतना व्यवहारमां त्यां परियुतत्वना
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy