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प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १६ 30 ४ सू० १ कर्मक्षपणनिरूपणम् १२३ शिथिली कृतानि मन्दाकिसकी कृपानि, कार्माणि मिडियाई कयाई" निष्ठितानि कृतानि-निःसत्तामानि विहितानि 'विपरिणामियाई चिपरिणामितानि स्थिति घातरसघातादिभित्रिपरिणामं नीतानि तानि कर्माणि झटिति विनाशम् उपयान्तीत्यर्थः खिप्पामे परिविद्धन्याई भति' क्षिम परिविवस्तानि भवन्ति शीघ्रमेव यथास्यात्तथा नष्पानि भवन्ति तानि कर्माणि 'जावइयं तावइयं जाव महापज्जवसागा भवंति' यानकां तावत्कासपि खलु यावत् महापयवासना भवन्ति, अत्र यावत्पदेन 'पि य णं ते वेयणं वेएमाणा महानिजरा' अपि खलु ते वेदनां. वेदयमाना महानिर्जरा इत्यस्य सङ्ग्रहो भवति । पुनरपि दृष्टान्तमाह-'से जहा वा केइपुरिसे' तद् यथा वा कश्चित् पुरुषः 'मुक्कं दणहत्थयं' शुष्कं तृणहस्त. कम् पुलिकम् 'जायनेयंसि पविखवेज्जा' जायतेजसि अग्नौ पक्षिपेत् एवं जहा. छट्ठसए तहा अयोकपल्ले वि एवं यथा षष्ठशतके तथा अयस्कपालेऽपि, षष्ठः "सिदिलीकयाई" भन्दविपाक वाले किए जाकर "गिट्टियाई कयाई" सत्ताविहीन किये जाकर "विप्परिणामियाई" स्थितिघात, रसघात आदि द्वारा विपरिणाम को प्राप्त किये जाकर "खिप्पानेच परिविद्वत्थाई भवंति" शीघ्र ही नष्ट कर दिये जाते हैं। "जानइयं तावइयं .जाव महापज्जवलाणा भवंति" इसलिये ये अमण निर्ग्रन्थ भले ही चाहे जितनी मन्दवेदना का अनुभव करें तब भी महानिर्जरावाले होते हैं। पुनः दृष्टान्तान्तर से प्रकृतविषय को पुष्ट करने के लिए सूत्रकार कहते हैं-"सुक्क तणस्त्वयं" जैसे शोई पुरुष शुष्क घास के पूरा को "आयते. मंसि पक्खिवेज्जा" अग्नि में डाल देता है "एवं जहा छट्ठसए तहा अयकवल्लो वि' छठवें शतक के प्रथम उद्देशक में कहा गया है उसके अनुसार बह शीघ्र जल जाती है-इसी प्रकार से श्रमणनिर्ग्रन्थों के वि:411 रान "णिद्वियाई कयाई" सत्ता ना ४ ॥ विपरित णामियाई" स्थिति धात रसधात विस्था परिणामित शयेसा ॥ खिप्पामेव परिविद्धत्थाइ भवंति" सही नाश राय छे. "जावइय तावइय जाव महापज्जवखाणा भवंति" तेथी मे श्रम निथ या तटसी भवनाना અનુભવ કરતા હોય તે પણ મહાનિર્જરાવાળા હોય છે.
, શ્રમણ ભગવાન આ વિષયને વધારે સ્પષ્ટ કરવા માટે બિજ રાત भापतig "सुक्कं तणह
y ३१ सुधासना माने "जायतेयंसि पविजा" MA , एवं जहा छठसए तहा अयक; बल्लो" म ४४१ शतना
वामां मान्यु छ त