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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० ४ सू० १ कर्मक्षपणनिरूपणम् स जराजर्जरितदेह :- अतएव 'सिढिलतयावलितरङ्गसंपिणद्धगते' शिथिलत्वचाबलितरङ्ग संविनद्धगात्रः - शैथिल्यमाप्तया त्वचयावलितरङ्गैय शिथिलचर्मरेखा रूपैः संपिनद्धं व्याप्तं गात्रं शरीरं यस्य स तथा शिथिलचर्मरे खाश्रेणियुक्तशरीरखान् 'पविरळ परिसडियदंत सेढी' प्रविरतपरिशटितदन्तश्रेणिः प्रविरलानाम् अल्पानां परिशटितानां दन्तानां श्रेणिः पतिर्विद्यते यस्य विरलपरिशटितदन्तश्रेणिः 'उच्हाहिए' उष्णाभिहतः उष्णेन सूर्यकिरणादिना संततगात्रः 'तण्डाभिहए' तृष्णाभिहृतः अतिध्यानयुक्तः 'आउरे' आतुरः मनोमालिन्ययुक्त इत्यर्थः, 'झुझिए' झुंझितोबुभुक्षित इत्यर्थः देशीशब्दोऽयं बुभुक्षितार्थका 'पिवासिए' पिपासितः पिपासया Fornace इत्यर्थः, 'दुबले' दुर्बलः शारीरिकवलरहित इत्यर्थः, 'किलंते' क्लान्तः - मनसा दुर्बल इत्यर्थः 'एगं महं कोसंवगंडियं' एकां महतीं कोशाम्र गण्डि रित देह होने से ही जिस का शरीर झुर्रियों से देहकी सिकुड़न सेव्याप्त हो चुका है । 'पविरल परिसडियदत से ढी' 'दन्तपंक्ति भी जिस की विरल हो चुकी है और जो भी बाकी गिरने से बची है . वह भी जिसकी हिल रही है। जो ' उण्हाभिहए ' सूर्य की किरणों से संतप्त देह बना हुआ है, 'तहाभिए " तृष्णा-प्यास से युक्त हो रहा है ( आउरे) आतुर - मनोमालिन्य जिस में आ 'चुका हैं । 'झुंझिए' भूख जिसे लग रही है, 'झु'झिए ' यह शब्द देशीय है और बुभुक्षित (ख) अर्थ का वाचक है । 'पिचासिए' पिपासा से वान्तदेह बना हुआ है । 'दुब्बले' शारीरिक बल से जो विहीन बन गया है, 'किलते' मानसिक बल भी जिसका गिर चुका है ऐसा वह इन विशेषणोंवाला पुरुष 'एग नहं को संवगंडियं । एक बडी कोशाम्र
વાકય કહ્યુ છે. અને જરાથી જજરીત શરીર થવાથી જેનુ શરીર કરચલી આથી વ્યાપ્ત થઇ ગયું છે. "पविरल परिसडियदतसेढी " हांतानी पडती
પણ જેની વિખરાઈ ગઈ છે અને જે પડયાવગરના માકીના દાંત ખચ્યા છે ते पशु प्रेमना हुसी गया है. भने ? " उण्दाभिहए" सूर्यना शिला थी मेनु शरीर तथी गयुं छे. " तव्हा भिहए " तृष्णा ३५ आर्तध्यानथी युक्त छे, यातुर भननु भेापशु मां मायुं छे. "झुंझिए " लूण लेने लागी छे. " झुंझिए " मे शह देशी छे. तेने लूणना अर्थभां वयराय छे " पिवासिए " तरसथी दुःभी मनेसेो छे. "दुत्रले " शारीरी मज हेतुं नाश थ गयुं छे. “ किलंते " मानसिङ जज पायु हेनु नष्ट यह यूभ्यु छे से આ વિશેષણેાવાળા પુરૂષ " एकं महं कोसंबगंड़िय " मे भोटी शान
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