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________________ ४६६ भगवतीस्ते नपुंसकमात्रवेदत्वात् अत एवाह-'जहणणेणं एक्को वा, दो वा, तिनि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नपुंसगवेयगा उत्रवज्जति' जबन्येन एको वा द्वौ बा, त्रयो वा, उत्कृष्टेन संख्येया नपुंसकवेदका उपपयन्ते, 'एवं कोहकसाई जाव लोभकसाई उववज्जति' एवं तथैव क्रोधकषायिणो यावत्-मानरूपायिणः, मायापायिणः, लोभकपायिणो जघन्येन एको वा, द्वौ वा, त्रयो वा, उत्कृष्टेन संख्येया उपपद्यन्ते, 'सोइंदिय उवउत्ता न उववज्जति, एवं जाव फासिदियोवउत्ता न उघवज्जंति' श्रोत्रेन्द्रियोपयुक्ता न उपपद्यन्ते, एवं तथैव यानन्-चक्षुरिन्द्रियोपयुक्ताः, घाणेन्द्रियोपयुक्ताः, रसनेन्द्रियोपयुक्ताः, स्पर्शनेन्द्रियोपयुक्ताः, नोपपद्यन्ते इन्द्रियणां तदानीमसद्भावात् , 'जहण्णेणं एको वा, दो वा, विनि वा, उक्कोसेणं राखेजा और न पुरुषवेदक उत्पन्न होते हैं, क्योंकि यहां पर भवप्रत्यय-(नरक के भव में) नपुंसकवेदमात्र हो होता है, इसीलिये यहां 'जहण्णे] एको वा, दो ना, तिनि वा उकोसणं संखेज्जा नपुंसगवेयगा उववज्जति' जघन्य से एक दो अथवा तीन और उत्कृष्ट से संख्यात् नपुंलकवेदक जीव उत्पन्न होते हैं ऐसा कहा गया है । 'एवं कोह कसाई' जाव लोभकसाई उववज्जति' इसी प्रकार से क्रोधकषायी, यावत् मानकषायी, मायाकषायी और लोभकपायी जीव जघन्य से एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट से संख्यात उत्पन्न होते हैं 'सोइंदिय उवउत्ता न उवथति' एवं जाब फासिदियोवउत्ता न उववति' श्रोत्रेन्द्रियोपयुक्त चक्षुइन्द्रियोपयुक्त एवं धाणेन्द्रियोपयुक्त जीव भी यहां उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि उस समय इन्द्रियों का अभाव रहता है जहण्णेणं. एको वा, दो वा, तिन्नि वा, उकासेणं संखेज्जा नो इंदियोवउत्ता उवઉત્પન્ન થતા નથી, કારણ કે ત્યાં ભવપ્રત્યય (નરકના ભવમાં) નપુંસકવેદ भात्र डाय छे. तथा त्या "जहण्णेणं एक्को, वा, दो वा, तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नपुंसगवेयगा उत्रवज्जंति" माछाम छ , मे मथवा अप અને વધારેમાં વધારે સંખ્યાત નપુંસકવેદક જી ઉત્પન્ન થાય છે, એવું ४यु छ एवं कोहकसाई जाव लोभकसाई उववज्जति" मे प्रमाणे ક્રોધકષાયી, માનકષાયી, માયાકષાયી અને લેભકષાયી જીવ પણ ઓછામાં એક, બે અથવા ત્રણ અને વધારેમાં વધારે સંખ્યા ઉત્પન્ન થાય છે. "स्रोइदियउवउत्ता न उजवजंति एवं जाव फासिदियोवउत्ता न उववज्जंति" એન્દ્રિયોપયુત, ચક્ષુઈન્દ્રિયોપયુકત, ઘણેન્દ્રિપયુકત અને સ્પર્શેન્દ્રિપચુત ની ત્યાં ઉત્પત્તિ થતી નથી, કારણ કે તે સમયે ત્યાં ઈન્દ્રિયોને
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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