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________________ प्रमेयंचन्द्रिका टीका श० १३ उ० १ सू० १ पृथिव्यादिनिरूपणम् __ तथा च येषां जीनां किश्चिन्न्यूनापुद्गलपरिवर्तः संसारः अवशिष्टो भवति ते शुक्लपाक्षिकाः, अथ च येषां तदपिका संसारः अवशिष्टो भवति दे. कृष्णन पाक्षिका व्यपदिश्यन्ते इति भावः । 'केवइया सन्नी उववज्जंति५?' कियन्ता संज्ञिनो जीवा उपपद्यन्ते ? 'केवइया असन्नी उववज्जति ? ' कियन्तः असंज्ञिनो जीवा उपपधन्ते६ ?' 'केवड्या भवसिद्धिया उववज्जति७१' कियन्तो भवसि द्धिकाः भवे सिद्धियेषां ते भवसिद्धिकाः, उपपद्यन्ते ? 'केवइया अभवसिद्धियाँ उववज्जति८ ? ' कियन्तः अभवसिद्धिकाः न भवे सिद्धियेषां ते अभवसिद्धिका उपपद्यन्ते ? 'केवइया आमिणिबोहियनाणी उचबज्जति९?' कियन्तः आभिनि. बोधिकज्ञानिनः मविज्ञानवन्तः, उपपद्यन्ते, 'केवइया सुयनाणी उबवजति१० ?', जिन जीवों का संसार अपार्द्धपुद्गलपरिवर्तमान रह गया है-वे शुक्लं. पाक्षिक जीव है और इससे अधिक जिनका संसार हैं वे कृष्णपाक्षिक जीव हैं। तात्पर्य कहने का यह हैं कि जिन जीवों का संसार किंचिः न्यून अर्द्धपुदलपरिवर्नमात्र बाकी रहा है, वे शुक्लपाक्षिक हैं और इस से अधिक संसारवाले जीव कृष्णपाक्षिक हैं। 'केवड्या सन्नी उववज्जंति, केवड्या असन्नी उववज्जति' कितने. संज्ञी जीव उत्पन्न होते हैं ? कितने असंज्ञी जीव उत्पन्न होते. हैं ? ' केवड्या-' भवसिद्धिया, उववज्जति' कितने भवसिद्धिक-भव में जिन्हों की सिद्धि हैं ऐसे जीव उत्पन्न होते हैं ? 'केवइया अभवसिद्धिया स्वय जंति' कितने अभवसिद्धिक-भव में जिन्हों की सिद्धि नहीं है-ऐसे जीव उत्पन्न होते हैं ? केवड्या आभिणियोहियनाणी उववज्जंति) કૃષ્ણપાક્ષિક અને શુકલપાક્ષિક નું લક્ષણ આ પ્રમાણે છે"जेलिम वड्ढो पोग्गलपस्यिट्टो सेसओ उ संसारों। ते सुक्कपक्खिया खलु अहिणे पुण कण्हपक्खीया ॥" જે જીવને સંસાર અર્ધપુલ પરિવર્ત કરતાં ન્યૂન બાકી રહ્યો હોય છે, તે જીવેને શુલપાક્ષિક કહે છે, અને તેમના કરતાં અધિક સંસારવાળા वान कृष्णपाक्षि ४छ. . “केवइया सन्नी उववज्जति, केवइया असन्नी उववज्जति " Bea सज्ञा ७पन थाय छे? ४८ असशील त्पन्न याय छे ? "केवइया भवसिद्धिया उववज्जति?" real ArAgs & Bपन्न याय छ ? "केवइया अभवसिद्धिया उववज्जति ?" सा मससिपिन थाय छे ? (सपने તરી જનારને ભવસિદ્ધિક અને ભવસાગરને તરી ન જનારને અભાવસિદ્ધિ ४९ ) "केवइया आमिणिबोहियनाणी, उववति ?" हैटा मालिनिमाविक
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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