________________
૨૦
भगवतीसूत्रे
ラ
भावः एवं च आवरणमात्रमेवेदं वैखसिकं चन्द्रस्य राहुणा ग्रसनं न तु कार्मणं न तु 'कर्मवशत', अथ राहोर्भेदमाह - ' कइरिणं भंते । राहू पण्णत्ते ! हे भदन्त | कतिविधः खलु राहुः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह - 'गोयमा ! दुविहे राहू पष्णते' हे गौतम! द्विविधो राहुः प्रज्ञप्तः, 'तंजद्दा-धुवराहू, पन्वराहूय' तद्यथा ध्रुवराहु, पर्वराय, तंत्र यः सदैव चन्द्रस्य सन्निहितः संचरति स ध्रुवराहु रुच्यते तथा चोक्तम्" कि राहुविमाणं निचं चंदेण होइ अविरहियं । चउरंगुलमप्पत्तं द्वा चंदस्स तं चरह ||१||
$
छाया - कृष्णं राहुविमानं नित्यं चन्द्रेण भवति अविरहितम् । चतुरङ्गुलमप्राप्तम् अधथन्द्रस्य तत् चरति, इति, ।
केवल उपचार से ही है वस्तुस्थिति को लिये हुए नहीं है । चन्द्र के ऊपर राहु की छाया पड़जाती है अतः यह चन्द्र का राहु के द्वारा ग्रसन कार्य एकरूप से आवरणमात्र ही है। जो वैस्रसिक-स्वाभाविक है कर्मकृत नहीं है. : अर्थ सूत्रकार राहु के भेदों का कथन करते है - ' कइविणं भंते । राहू पण्णत्ते' इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है - हे भदन्त | राहु कितने प्रकार की कहा गया है ? उत्तर में प्रभु ने कहा- ' गोथमा ! दुविहे राहू - पण्णत्ते, हे गौतम | राहु दो प्रकार का कहा गया है 'तंजहा- 'धुवराहू, 'पराह्न य' एक ध्रुवराहु और दूसरा पर्वराहु इनमें जो राहु चन्द्र के 'सन्निहित हुआ संचरण करता रहता है वह ध्रुवराहु कहा गया है सो ही कहा है- ' किन्हें राहु विमाणं ' इत्यादि । राहु का विमान कृष्ण होता है। गये। छे. " परन्तु तेभनु म अथन માત્ર ઔપચારિક કથન રૂપજ છે. વાસ્તવિક રીતે એવું મનતુ' જ નથી. ચન્દ્રની ઉપર રાહુના પડછાયેા પડવાથી એવુ' દેખાય છે એટલે તેને ગ્રાસ કહેવાને છદલે આવરણ જ કહેવું જોઇએते वैखसि (स्वाभावि४) छे, भईत नथी.
#
હવે સૂત્રકાર રાહુના પ્રકારાનું કથન કરે છે—
गौतम स्वाभीने अश्न-“ कइविहे णं भंते ! राहू पण्णत्ते " है लगवन् ! રાહું કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે? તેને ઉત્તર આપતા મહાવીર પ્રભુ કહે છે કે “गोयमा ! दुविहे राहू पण्णत्ते" हे गौतम | राहु अारना ह्या छे. "तेजहा" राहुना मे अठारौ नीचे प्रभा - "घुवराहू, पव्वराहू य” (१) ध्रुवराहु भ्मने (૨) પ રાહુ જે રાહુ ચન્દ્રની સમીપમાં જ રહીને સંચરણ કરે છે, તેનેં राहुडे से वात " किन्हें राहू विमाणं " त्याहि सूत्र द्वारा सूत्रકારે' પ્રફર કરી છે રાહુનું વિમાન કૃષ્ણવર્ણનું હાય છે તે હંમેશા ચન્દ્રર્માની
"