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भगवतीस्त्रे देशभागे सार्धद्वयद्वीपसमुद्रस्य एकमदेशे भवति, गौतमः पृच्छति-' ते णं भते ! एगममएणं केवइया होज्जा ? ' हे भदन्त ! ते खलु अश्रुत्वा केवलिनः एकसमये कियन्तो भवन्ति ? भगवानाह-'गोयमा ! जहण्णेणं एको चा, दो वा, तिम्नि वा, उक्कोसेणं दस ' हे गौतम ! ते केवलिनः जघन्येन एकसमये एको वा द्वौ वा, त्रयो वा भवन्ति, उत्कृष्टेन तु एकसमये दश भवन्ति । उपसंहरअढाई द्वीप में दो समुद्र में-इनके एकदेश में होता है। तात्पर्य कहने का यह है कि अश्रुत्वा केवली अर्ध्वमध्य और अधः इन तीनों लोकों में होता है। अर्ध्वलोक में लब्धि के निमित्त से ग संहरण के निमित्त से वह वहीं हो सकता है। मध्यलोक में भी वह स्वभावतः १५ कर्मभूमियों में होता ही है। रही अढाई बीपसमुद्रों की बात-क्यों कि इतना ये सब रथान कर्मभूमि से भी सम्बन्ध रखता है-अतः इतने स्थान में भी इसका अस्तित्व संहरण की अपेक्षा से हो सकता है। अधोलोक में खड्ड़े आदि स्थानों में तो यह पाया ही जाता है-रही पाताल आदि स्थानरूप अधोलोक की वात-सो वहां पर भी इसका आस्तित्व-संहरण की अपेक्षा से बन सकता है। ___ अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-(तेणं भंते ! एगसमएणं केवच्या होज्जा) हे भदन्त ! एक समय में कितने अश्रुत्वा केवली हो सकते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा) हे गौतम । (जहण्णणं एको वा, दो बा, तिनि वा ) एक समय में अश्रुत्वा केवली कम से कम હોય છે ઉર્વલોકમાં લબ્ધિના કારણે અથવા સંહરણને કારણે તેઓનું અસ્તિત્વ સંભવી શકે છે. મધ્યલોકમાં (
ર્તિકમાં) તેઓ સ્વાભાવિક રીતે ૧૫ કર્મભૂમિઓમાં તે હોય જ છે. હવે રહી અઢી દ્વિપસમુદ્રોની વાત...કારણ કે આ બધાં સ્થાને કર્મભૂમિ સાથે પણ સંબંધ રાખે છે, તેથી એટલાં સ્થાનમાં પણ તેમનું અસ્તિત્વ સંહરણની અપેક્ષાએ સંભવી શકે છે. અધોકમાં ગર્તા (ખાડા) આદિ સ્થાનેમાં તે તેમનું અસ્તિત્વ હોય જ છે, પણ પાતાલ આદિ સ્થાનરૂપ અલકમાં પણ હરણની અપેક્ષાએ તેમનું અસ્તિત્વ સંભવી શકે છે.
गौतम स्वामीना प्रश्न-( से णं भते ! एग समपणं केवइया होज्जा') હે ભદન્ત ! એક સમયમાં કેટલા અશ્રવા કેવલી સંભવી શકે છે?
महावीर प्रभुना उत्तर-" गोयमा !" के गौतम ! ( जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिन्नि वा) से समयमा सामा माछा मे मथवा मे अथवा जर मश्रुत्वा पक्षी डा श छ, मन “ उक्कोसेणं दस" पधारेमा धारे