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________________ ६६६ भगवती सूत्रे रेज्जा ' हे गौतम ! अस्त्येककः कचित् पुरुषः केवलिनः सकाशाद् वा यावत्केवलिश्रावकप्रभृतेः सकाशाद् वा संवरोपदेशमश्रुत्वाऽपि खलु केवलेन संवरेण संवृणुयात्, अथ च ' अत्थेगइए केवलेणं जाव नो संवरेज्जा' अस्त्येककः कश्चित् पुरुषः केवलिमभृतेः सकाशात् संवारोपदेशमश्रुत्या केवलेन यावत् संवरेण नो संहणुयात्, गौतमः प्राह - ' से केणट्टेणं जाव णो संवरेज्जा ' हे भदन्त ! तत्केनार्थेन यावत् अस्त्येककः कश्चित् केवलिप्रभृतेः सकाशात् संत्ररोपदेशमश्रुत्वापि केवलेन संवरेण संहृणुयात्, किन्तु अस्त्येककः कश्चित् अन्यस्तथाविधमकृत्वा केवलेन संवरेण नो संवृणुयात् ? भगवानाह - ' गोयमा ! जस्स णं अज्झत्रसाणावर णिज्जार्णं कम्माणं खभवसमे कडे भाइ, से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव के लेणं संवरेण संचरेज्जा) हां, कोई एक जीव ऐसा भी होता है जो केवली से या यावत् उनके श्रावक आदि से संवर का उपदेश सुने विना भी शुभा. व्यवसायवृत्तिरूप संवर कर सकता है ? और ( अत्थेगइए केवलेणं जाव नो संवरेज्जा ) कोई एक जीव ऐसा होता है जो केवली से या यावत् उनके श्रावक आदि से संवर का उपदेश सुने विना केवल संवर से शुभाध्यवसायवृत्तिरूप संवर नहीं कर सकता है । (सेकेणट्ठेणं जाव णो संवरेज्जा ) हे भदन्त ! ऐसा क्यों होता है कि कोई एक जीव केवली से या केवली के श्रावक आदि से संवर का उपदेश सुने विना भी केवल संवरसे शुभाध्यवसाय वृत्तिरूप संबर कर सकता है ? और कोई जीव ऐसा नहीं करके केवल संवर से संवर नहीं कर सकता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - ( गोयमा ! ( जस्स णं अज्झवसाणावर હાય છે કે જે કેવલી પાસે અથવા તેમના શ્રાવકાદિ પાસે સવરના ઉપદેશ सांभज्या विना यष्णु शुभाध्यवसायवृत्ति३य संवर कुरी शडे छे, मने ( अत्थेगइए केवले जाव नो संवरेज्जा ) व मेव। होय छेडे ने हैवसी આદિની સમીપે સંવરના ઉપદેશ સાંભળ્યા વિના કૈવલ સ ́વરદ્વારા શુભ અધ્યવસાયવૃત્તિરૂપ સંવર કરી શકતા નથી. गौतम स्वाभीना अश्न – ( से केण ेण आव णो सांवरेन्जा १ ) से महन्त ! આપ શા કારણે એવું કહેા છે કે કોઇ જીવ કેન્નલી અથવા તેમના શ્રાવક વગેરેની સમીપે સવરના ઉપદેશ સાંભળ્યા વિના પણ શુદ્ધ સવરદ્વારા આસવાના નિધ કરી શકે છે, અને કોઈ જીવ એવું કર્યા વિના કૈવલ સવરદ્વારા આવાના નિરાય કરી શકતા નથી ? भडावीर अलुना उत्तर- " गोयमा ! " हे गौतम! जहसणं अज्मवसाणा • वरणिजाण' कम्माण खओवसमे कडे भवइ, सेणं असोच्चा केवलिस्स वा जाव
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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