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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीकाश०८उ०१० ज्ञानावरणीयादिकमणां सम्बन्धनिरूपणम् ५४९ स्यात् कदाचित् नास्ति न भवति, किन्तु यस्य पुनर्मोहनीयं कर्म भवति तस्य ज्ञानावरणीयं कर्म नियमात् नियमतोऽरित भवत्येव अक्ष पकरय हि ज्ञानावरणीयं मोहनीयं चास्ति, अपकस्य तु गहाये यावत् केवलज्ञानं नोत्पद्यते तावत् ज्ञानावरणीयमस्ति, मोहनीयं तु नास्तीति भावः । गौतमः पृच्छति-' जस्स णं भंते ! णाणावरणिज्जं तस्स आउयं० ? ' हे भदन्त ! यस्य खलु जीवस्य ज्ञानावरणीयं कम भवति, तस्य किम् आयुष्कमपि कम भवति ? एवं यस्य आयुष्कं कर्म भवति तस्य किं ज्ञानावरणीयमपि कम भवति ' भगवानाह-' एवं जहा वेर्याणजेण समं भणियं तहा आउएण वि समं भाणियव्वं, एवं नामेण वि, एवं गोएण वि समं' जीव अक्षपक है उस के तो ज्ञानावरणीय और मोहनीय ये दोनों कर्म साथ २ रहते हैं परन्तु जो क्षपक जीव होता है उसके मोह का क्षय हो जाने पर भी जबतक केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है-तबतक उसके ज्ञानावरणीय कर्म का सद्भाव तो रहता ही है अतः ज्ञानावरणीय के सद्भाव में मोहनीय के सद्भाव की भजना कही गई है। ___अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-(जस्स णं भंते जाणावरणिज्ज तस्स आउयं०) हे भदन्त ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म का सद्भाव पाया जाता है, उस जीव के क्या आयुष्य कर्म का भी सद्भाव पाया जाता है, और जिस जीव के आयुष्य कर्म का सद्भाव पाया जाता है उस जीव के क्या ज्ञानावरणीय कर्म का भी सद्भाव पाया जाता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (एवं जहा वेयणिज्जेण समं भणियं तहा आउएण वि समं भाणियव्वं, एवं नामेण चि, एवं गोएण वि समं) हे गौतम ! इस विषय में ऐला उत्तर जानना चाहिये પર તુ જે ક્ષપક જીવ હોય છે, તેના મોહનીય કર્મને ક્ષય થવા છતાં પણ જ્યાં સુધી તેને કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થતું નથી, ત્યા સુધી તેને જ્ઞાનાવરણીય કર્મને તે સદ્દભાવ જ રહે છે. તે કારણે જ્ઞાનાવરણીયને સદ્ભાવ હેય ત્યારે મેહ નિયનો વિકલ્પ સદભાવ કહ્યો છે. वे गौतम स्वामी महावीर असुन मे प्रश्न पूछे छे 3-( जस्सणं भसे ! णाणावरणिज्ज', तस्स आउय. त्याह) 3 महन्त २ मा ज्ञाना. વરણીય કર્મને સદભાવ હોય છે, તે જીવમાં શું આયુષ્ય કમને સદભાવ હેાય છે? અને જે જીવમાં આયુષ્ય કમને સદ્ભાવ હોય છે, તે જીવમાં શુ જ્ઞાનાવરણીય કર્મને સદૂભાવ હોય છે ? __ भडावी२ प्रभुना उत्तर-(एवं जहा वेयणिज्जेण समं भणियं, तहा आउएण वि समं भाणियव्यं, एवं नामेण वि, एवं गोएण वि, सम) गौतम !
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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