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________________ प्रमैपचन्द्रिका टीका श० ८ उ०८ सू० ५ कर्मप्रकृति-परीपहवर्णनम् १९५ त्वात् , भयमोहनीये उपसर्गबाधा भयापेक्षया नैवेधिकीपरीपहः, मानमोहनीये तद् दुष्करत्वापेक्षया याचनापरीपहः समवतरति, मानमोहनीये मदोत्पत्त्यपेक्षया सत्कारपुरस्कारपरीषहः समवतरति । सर्वेऽपि एते सप्त सामान्यतश्चारित्रमोहनीये समवतरन्ति । गौतमः पृच्छति-'अंतराइए णं भंते । कम्मे कइ परीसहा समोयरंति ?' हे भदन्त ! आन्तरायिके खलु कर्मणि विषये कति परीपहाः समवतरन्ति ? भगवानाह-'गोयमा ! एगे अलाभपरीसहे समोयरइ' हे गौतम ! अन्तराये कमणि एकः अलाभपरीपह एव समवतरति, अन्तरायश्चात्र लाभान्तरायरूपो विज्ञेयः तदुदये रीषह स्त्री आदि की अभिलाषा रूप होता है, नैषेधि की परीषह उपसर्ग बाधा और भय की अपेक्षा से भयसोहनीय में, याचनापरीषह दुष्करत्व की अपेक्षा से मानसोहनीय में समाविष्ट होते हैं । क्रोधोत्पत्ति की अपेक्षा से आक्रोशपरीषह क्रोधमोहनीय में, भदोत्पत्ति की अपेक्षा से लत्कार पुरस्कार परीषह मानमोहनीय में समाविष्ट होते हैं। इस प्रकार ये सात परीषह सामान्य रूप से चारित्रमोहनीय में समाविष्ट होते हैं। अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं (अंतराइए णं भंते ! कम्मे कह परीसहा समोयरंति) हे भदन्त ! अन्तरायिक कर्म में कितने परीषहों का समावेश होता है ? उत्तर में प्रभुकहते हैं (गोयमा) हे गौतम! (एगे अलाभपरीसहे समोयरइ) अन्तराय कर्म में एक अलाभपरीषह का समाविष्ट होता है। यहां अन्तरायले लालान्तरायरूप जानना चाहिये क्यों कि लाभान्तराय के उदय में ही लाभ का अभाव होता है । इस રૂપ હોય છે. વૈશ્વિકી પરીષહનો સમાવેશ ઉપસર્ગ, બાધા અને ભયની અપેક્ષાએ ભયમેહનીયમાં થાય છે યાચના પરિષદને દુષ્કરત્વની અપેક્ષાએ માનમેહનીયમાં સમાવેશ થાય છે. ફોત્પત્તિની અપેક્ષાએ આક્રોશ પરીષહને માનહનીયમાં અને મત્પત્તિની અપેક્ષાએ સત્કાર પુરસ્કાર પરિષહને પણ માનનીયમાં સમાવેશ થાય છે. આ પ્રમાણે સાત પરિષહને સમાવેશ સામાન્ય રીતે ચારિત્ર મોહનીયમાં થાય છે. गौतम स्वामीना प्रश्न-" अंतराइए णं भंते ! कम्मे इइ परीसहा समोयति ?" है महन्त ! 'तराय ४भभारा परीषडाना समावेश थाय छ ? तेना उत्तर मापता मडावी२ अनु ४ छ । “ गोयमा ! " गीतम ! (एगे अलाभपरिसहे समोयरइ) अन्तराय म मा मेमसाल परीषडनर સમાવેશ થાય છે. અહીં અન્તરાયને લાભાન્તરરાય રૂપ સમજવો. કારણ કે લાભાન્તરાયના ઉદય વખતે જ લાભને અભાવ રહે છે. આ પરીષહુ સહવા તે ચારિત્ર મેહનીયના પશમ રૂપ હોય છે.
SR No.009317
Book TitleBhagwati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages784
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size46 MB
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