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भगवती सूत्रे
भगवान् प्रकृतमुपस हरति- 'से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चर - आराहए, नो विराहए' हे गौतम ! तत् अथ तेनार्थेन एवमुच्यते, - निर्ग्रन्थः आराधक एव नो विराधकः || सू० ३ ॥
दीप स्वरूपवक्तव्यता
मूलम् - "पईवस्स णं भंते! झियायमाणस्स किं पईवे झियाइ लट्टी झियाइ, वत्ती झियाइ, तेल्ले झियाइ, दीवचंपए झियाइ, जोई झियाइ ! गोयमा ! नो पईवे झियाइ, जाव नो पईव चंपए झियाइ, जोई झियाइ, आगारस्स णं भंते! झियायमाणस्स किं आगारे झियाइ, कुड्डा झियाइ, कडणा झियाइ धारणा झियाइ, बलहरणे झियाइ, वंसा झियाइ, मल्ला झियाइ वग्गा झियाइ, छित्तरा झियाइ, छाणे झियाइ, जोई झियाइ ? गोयमा ! नो अगारे झियाइ, नो कुड्डा झियाइ, जाव नो छाणे झियाइ जोई झियाइ ॥ सू० ४ ॥
छाया - प्रदीपस्य खलु भदन्त ! ध्मायतः किं प्रदीपो ध्मायति, यष्टिः धमायति, वनिका ध्मायति तैलं ध्मायति, दीपचम्पकं ध्मायति, ज्योतिः
में रक्त सा प्रयोग होता है । अब प्रकृत विषयका उपसंहार करते हुए प्रभुसे कहते हैं- ' से तेणदृणं गोयमा ! एवं बुच्चइ आराहए नो विराहए ' हे गौतम ! इसी कारण से मैने ऐसा कहा है कि आराधना करनेके लिये तैयार हुआ वह निग्रन्थ श्रमण तथा निर्ग्रन्थी साध्वी आराधक है विराधक नहीं है || सू० ३ ॥
हुवे आ पातने। यस हा२ ४२ता महावीर - 'से तेणट्टेणं गीयमा ! qå gas, aug at fig' & silah! as, ang, se p આરાધના કરવાને માટે તૈયાર થયેલા તે શ્રમણુ નિગ્રંથ તથા નિ'થી સાધ્વી, આરાધ ४ छे, विरुध नथी. ॥ सू ३ ॥