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________________ भगवतीमत्रे व्यवस्थित - तध्यासितक्षेत्रखण्डानां तथाविधविशिष्टैकपहिणामयुक्तत्वात्, अथ च तन्मव्यवर्तिनो महतः क्षेत्रखण्डस्य एकत्वेन विवक्षया चरमम्' तत् रत्नप्रभाक्रान्तं मध्यवर्ति क्षेत्रखण्डम् इति एकवचनान्ततया व्यपदेशो भवितुमर्हति, रत्नप्रभायाश्च पृथिव्यास्तदुभय समुदायरूपत्वात्, अन्यथा तदभावप्रसङ्गात्, प्रदेश विवक्षापरिकल्पनया तु चरमान्त प्रदेशाः, अचरमान्त प्रदेशोश्च भवितु मर्हन्ति, तथाहि-रत्नप्रभायाये वाह्यखण्ड प्रदेशास्ते चरमान्तप्रदेशाः, ये च रत्नप्रभायाः मध्यखण्डप्रदेशास्तेऽचरमान्त प्रदेशा इति व्यपदेष्टु पार्यते, इत्यनेन एकान्तवादनिरसनप्रधानेन यथोक्तअचरलं, चरमाणि च भवितुमर्हति' वह रत्नप्रभापृथिवी अचरमरूप, बहुवचनान्त चरमरूप, चरमान्त प्रदेशरूप और अचरमान्त प्रदेशरूप कही जा सकती है। तात्पर्य ऐसा है- कि रत्नप्रभाके प्रान्त मागमें अवस्थित खंडोमें जव अनेकत्वकी विवक्षा की जाती है, तब वहां पर 'चरमाणि' ऐसे वहुवचनका प्रयोग हो सकता है तथा मध्यभाना वर्ती खंड जब एकरूपसे विवक्षित होता है, तब वहां एकवचनरूप 'अचरम' ऐसे पदका प्रयोग हो सकता है। तथा प्रदेशदृष्टिकी विवक्षा से चरमान्त प्रदेश और अचरमान्त प्रदेशरूपसे भी वह कही जा सकती है। तात्पर्य कहनेका यही है कि रत्नप्रभा पृथिवीके पहिले और बादमें कोई दूसरी पृथिवी वगैरह चीज नहीं है। इसलिये न वह उसकी अपेक्षा चरम कही जा सकती है और न अचरम कही जा सकती है। जब उसमें चरल और अचरमका व्यवहार नहीं होता है तो वह फिर चरमान्त प्रदेशरूप और अचरमान्त प्रदेशरूप भी थ४ जनय छे. मे21 भाट 'नियमात् अचरमं चरमाणि च भवितुमर्ह ति' તે રત્નપ્રભા પૃથ્વી અચરમરૂપ બહુવચનાને ચરમરૂપ અરમાન્ત પ્રદેશરૂપ અને અરમાન્ત પ્રદેશરૂપ કહી શકાય છે. કહેવાનો હેતુ એ છે કે રત્નપ્રભાના પ્રાંતભાગમાં રહેલા ખાડામાં भनेत्वनी विविक्षा राय छे त्यारे त्या 'चरमाणि' सेवा मपयनवाले प्रयोग या જાય છેમધ્યભાગવતિ ખંડ જ્યારે એકરૂપથી વિવક્ષિત હોય ત્યારે ત્યાં એક વચનરૂપ 'अचरम वा पहना प्रयो॥ ४ी २४य छ तथा प्रदेशष्टिनी विवक्षाथी य२मान्त પ્રદેશ અને અચરમાન્ત પ્રદેશરૂપથી પણ તેને કહી શકાય છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પહેલાં અને પછીથી કઈ બીજી પૃથ્વી વિગેરે ચીજ નથી. એટલે તે તેની અપેક્ષાએ ચરમ કહી શકાય નહીં અને અચરમ પણ કહી શકાય નહીં જ્યારે તેમાં ચરમ અને અચરમને વહેવાર નથી થતું તે પછી ચરમાન્ત પ્રદેશરૂપ અને
SR No.009316
Book TitleBhagwati Sutra Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages811
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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