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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ७ उ. ८ . २ नैरयिकादिपापकर्मनिरूपणम् ६५१ 6 कर्म तत् सुखस्वरूपमोक्षजनकत्वात् सुखमुच्यते ? भगवानाह - 'हंता, गोयमा ! नेरइयाणं पावे कम्मे जाव सुहे' हे गौतम ! हन्त ! सत्यम् नैरयिकाणां पापं कर्म यावत् यच्च कृतं यच क्रियमाणं यच्च करिष्यमाणं सर्वं तत् दुःखं यच्च निर्जीर्ण कर्म, तत् सुखमुच्यते, एवं जाव वेमाणियाणं एवं नैरयिकवदेव ' यावत - भवनपतिमारभ्य वैमानिकानां वैमानिकपर्यन्तानां पाप कर्म यच्च कृतम यच्च क्रियते; यच्च करिष्यते, सबै तत् दुःखम्, अथ च यत् कर्म निर्जीण तत् सुखमुच्यते इति भावः || २ || द्वारा किये जा रहे हैं, एवं आगामी काल में जो उनके द्वारा किये जाने वाले हैं वे सब कृत, क्रियमाण और करिष्यमाण पापकर्म दुःखके हेतुभूत संसारके कारण होने से क्या दुःखरूप कार्य में कारण के उपचार से कहे जाते हैं ? तथा जो कर्म उनके निर्जीर्ण हो चुके हैं वे सुखस्वरूप मोक्षजनक होने से सुखरूप कहे जाते हैं क्या ? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं- 'हंता, गोगमा ! नेरइयाणं पावे कस्मे जाव सुहे' हां गौतम सत्य है - नैरयिकों के कृत, क्रियमाण और करिष्यमाण पापकर्म सब दुःखरूप कहे गये हैं और जो पापकर्म उनके निजीर्ण हो चुके हैं वे सुखरूप कहे गये हैं । ' एवं जाव वेमाणियाणं ' नैरयिकों की तरह ही यावत्- भवनपति से लेकर वैमानिक देवों तक ऐसा ही कथन जानना चाहिये । अर्थात् भवनपति से लगाकर वैमानिक देवों तक जो पापकर्म उनके द्वारा किया जा चुका है, किया जा रहा है और आगे किया जानेवाला है वह सुख दुःखरूप है और તેઓ જૈ પાપકર્મો કરતા હોય છે, અને ભવિષ્યકાળમાં તેઓ જે પાપકર્મી કરવાના છે, એ બધા કૃત, ક્રિયમાણુ અને કરિષ્યમાણુ પાપકર્માં દુઃખના હેતુભૂત સંસારના કારણરૂપ હેવાથી શુ દુઃખરૂપ કહી શકાય ખરાં? (અહી કા'માં કારણના ઉપચારથી પાપકર્માને દુઃખરૂપ કહ્યા છે) તથા તેમના જે કર્માંની નિરા થઇ ગઇ છે, તે સુખરૂપ મેક્ષના જનક હાવાથી શુ ચુખરૂપ કહી શકાય ખરા ? या प्रश्नने। उत्तर भापता महावीर प्रभु डे - 'हंता, गोयमा ! नेरइयाणं पावे कम्मे जाव सुहे 'डा, गौतम ! ते वात भरी है नारना त ( ४राध युद्धेसा), ક્રિયમાણુ (કરાઇ રહેલા), અને કરિષ્યમાણ (ભવિષ્યમા કરાનારા) પાપકર્માને દુઃખરૂપ જ કળ્યાં છે, અને તેમના દ્વારા જે પાપકર્માંની નિર્જરા કરી નાખવામા આવી છે, તે पाय भने सुइय ह्या छे 'एवं जाव वेमाणियाणं' भवनयतिथी बने वैमानि પન્તના દેવાના વિષયમાં પણ નારકા જેવું જ કથન સમજવુ. એટલે કે તેમના દ્વારા
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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