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________________ ६३२ भगवती सूत्रे पारगतानि रूपाणि द्रष्टुम् यः खलु नो प्रभुः देवलोकं गन्तुम् यः खलु नो प्रभुः देवलोकगतानि रूपाणि द्रष्टुम, एवं खलु गौतम ! प्रभुरपि प्रकामनिकरणं वेदनां वेदयति । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त । इति ॥ ०५ ॥ टीका- 'अस्थि णं भंते! पभू वि पकामनिकरणं वेयण वेपइ ?' गौतमः पृच्छति - हे भदन्त । अस्ति संभवति खलु प्रभुरपि संज्ञित्वेन समनस्कतया रूपहे गौतम ! (जेणं नो पद समुहस्स पारं गमित्तए, जेणं नो पभू समुहस्स पारगयाई रुवाई पासित्तए, जे णं नो पभू देवलोगं गयाइ रुवाई पात्तिए, एस णं गोयमा ! पभू वि पकामनिकरणं वेयणं वेएइ सेचं भंते । सेव भंते । त्ति) जो जीव समुद्रके पारको प्राप्तकरनेमें समर्थ नहीं है, जो जीव समुद्रके पार में रहे हुए पदार्थो को देखने के लिये समर्थ नहीं है, जो जीव देवलोक में जानेके लिये समर्थ नहीं है, जो जीव देवलोक में रहे हुए पदार्थो को देखनेके लिये समर्थ नहीं है है गौतम ! ऐसा वह जीव समर्थ होते हुए भी तीव्र इच्छापूर्वक वेदनाका वेदन करता है । हे भदन्त ! आपके द्वारा कहा गया यह सब विषय सर्वथा सत्य है, है भदन्त । आपके द्वारा कहा गया यह सब विषय सर्वथा सत्य है । ऐसा कहकर गौतम यावत् अपने स्थान पर विराजमान हो गये । टीकार्थ-जीवका अधिकार होने से यहां पर सूत्रकारने संज्ञी जीवोंके ही प्रकामनिकरण वेदनाके विषयमें कहा है इसमें गौतमने ( गोयमा ) डे गौतम ! ( जे णं नो पभू समुदस्स पारं गमित्त, जे नो पथ समुहस्स पारगयाइ रुवाइ पासितए, जेणं नो पभू देवलेोगं गमित्त जे नं नो पभू देवलगाया रुबाई पासित्तए, एसणं गोयमा ! प्रभू वि पकामनिकरणं वेयणं वेएइ) समुद्रने पार भवाने समर्थ नथी, જે જીવ સમુદ્રને પાર પેલે પાર રહેવા પદાર્થોને જોઇ શકવાને સમર્થ હાતા નથી. જે છત્ર દેવલેાકમા જવાને સમર્થ નથી, દૈવલેકમાં રહેલા પદાર્થાને જોવાને સમર્યાં નથી, એવા જીવ સમ તીવ્ર ઇચ્છાપૂર્વક વેદનાનું અને જે જીવ હાવા છતાં પણ વેદન કરે છે. ( सेवं भते । सेवं भंते! त्ति ) से लहन्त ! ने आये હે ભદ્દન્ત ! આ વિષયનું આપે જે પ્રતિપાદન કર્યું. તે કહીને પ્રભુને વંદા નમસ્કાર કરીને ગૌતમ સ્વામી પોતાને ह्यं ते सर्वथा सत्य छे. સર્વથા સત્ય છે, આ પ્રમાણે સ્થાને વિરાજમાન થઈ ગયા ટીકા- જીવને અધિકાર ચાલુ હાવાથી સૂત્રકારે અહીં સજ્ઞી જીવાની પ્રકામ નિકરણુ વેદનાનુ નિરૂપણ કર્યું છે આ વિષયને અનુલક્ષીને ગૌતમ સ્વામી મહાવીર
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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