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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.७उ.६८. १ नैरयिकाणां आयुर्वेधादिस्वरूपनिरूपणम् ५२७ प्रतिपादितस्तथा विज्ञेयः । गौतमः पृच्छति - जीवाणं भंते ! किं आभोगनिव्वत्तियाउया अणाभोगनिव्वत्तियाउया ? ' हे भदन्त जीवाः खलु किम आभोग निर्वर्तितायुष्काः आभोगेन = ज्ञानेन इच्छया वा निर्वर्तित वद्धमायुस्ते तथा, ज्ञानेच्छापूर्वकमायुष्कवन्धका भवन्ति ? किं वा अनाभोग निर्वर्तितायुष्काः अनाभोगेन अज्ञानेन अनिच्छया वा आयुष्कचन्धका भवन्ति ? भगवानाह - गोयमा ! णो आभोगनिव्वत्तियाउया, अणाभोगनिव्वत्तियाउया' हे गौतम । जीवा नो आभोगनिर्वर्तितायुष्काः भवन्ति, अपितु अनाभोगनिवर्तितायुष्काः भवन्ति, "एवं नेरइया वि, एवं जाव - वेमानिया' एवं बहुत्वविशिष्ट जीवसमुचयवदेव और उत्पन्न हुए जीवके विषय में कथन किया जा चुका है. उसी प्रकार से वानव्यन्तर, ज्योतिषी, और वैमानिक देवोंमें उत्पन्न होने योग्य जीवके विषय मे, उपपद्यमान जीव के विषयमे और उत्पन्न हुए जीवके विषयमें जानना चाहिये । अब गौतम स्वामी प्रभुसे ऐसा पूछते हैं कि 'जीवाणं भंते ! कि आभोगनिवत्तियाज्या, अणाभोगनिव्वत्तियाउया' हे भदन्त ! जीवको क्या ज्ञान से अथवा इच्छासे आयु के बंधक होते हैं ? या अज्ञान अथवा अनिच्छासे आयुके बंधक होते हैं ? इस के उत्तरमें प्रभु उनसे कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम! 'णो आभोगनिव्वत्तियाज्या' अणाभोगवित्तियाज्या, जीव आभोगनिर्वत्तित आयुष्क नहीं होते हैं, किन्तु अनाभोगनिर्वर्तित आयुष्क होते हैं । ' एवं नेरइया वि, एवं जाव જીવના વિષયમાં જેવું કથન કરવામાં આવ્યુ છે, એવું જ કથન વાનચન્તર, જ્યાતિષ્ઠ અને વૈનિકામાં ઉત્પન્ન થવા ચેગ્ન જીવના વિષયમાં, તથા ઉપપદ્યમાન જીત્રના વિષયમાં તથા ઉત્પન્ન થઈ ગયેલા જીવના વિષયમાં પણ સમજવું. हवे गौतम स्वाभी भहावीर अभुने सेवा प्रश्न पूछे छे - 'जीवाणं भंते! किं आभोगनिवत्तियाउया, अणाभोगनिव्वत्तियाउया' से महन्त ! कवने शुं ज्ञानथी અથવા ઇચ્છાથી આયુના અંધક થાય છે, કે અજ્ઞાન અથવા અનિચ્છાથી આયુના બંધક थाय छे. उत्तर- ' गोयमा ! ' हे गौतम! ' णो आभोगनिव्त्रत्तिया, अणाभोगनिव्वत्तियाज्या ' व भ्यालेोगनिर्वर्त्तित आयुवाना होता नथी- गोटी हे तेथे જ્ઞાન અથવા ઇચ્છાપૂર્વક આયુના બંધક થતા નથી, પરન્તુ અનાભાગનિવર્જિત આયુષ્ક હાય છે- મેટલે કે અજ્ઞાન અથવા અનિચ્છાપૂર્વક જ આયુના માઁધક થાય છે. • एवं नेरहया वि, एवं जाव वेमाणिया ' आलोग अनालोगनिर्वर्त्तित आयुष्यना
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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