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________________ ममेयचन्द्रिकाटीका श.७३.६८.१ नैरयिकाणां आयुर्वधादिस्वरूपनिरूपणम् ५१५ एवं जावत्-मनुष्येषु, वानव्यन्तर-ज्योतिषिक-वैमानिकेषु यथा असुरकुमारेषु । जीवाः खलु भदन्त ! किम् आभोगनिवर्तितायुष्काः, अनाभोगनिर्वर्तितायुष्काः ? गौतम ! नो आभोगनिर्वतितायुप्काः, अनाभोगनिर्वतितायुष्काः, एवं नैरयिका अपि, एवं यावत्-वैमानिकाः ।।सू० १॥ सिय अप्पवेयणे, एवं उवववेमाणे वि- अहेणं उववन्ने भवइ, तो पच्छा वेमायाए वेयणं वेएइ, एवं जाव मणुम्सेसु, वाणानंतर, जोइसिय वेमाणिएसु जहा असुरकुमारेसु) जो जीव पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने का योग्य होता है ऐसा वह जीव इस भव में रहता हुआ कदाचित महावेदनावाला होता है कदाचित अल्पवेदनावाला होता है इसी तरह से उत्पद्यमान जीव के विषय में भी जानना चाहिये। तथा जब वह जीव पृथिवीकायमें उत्पन्न हो चुका है इसके बाद तो वह विविध प्रकारसे वेदना को वेदता है। इसी प्रकारसे यावत् मनुष्योंमें जानना चाहिये, वानव्यन्तरोंमें, ज्योतिषिकोंमें, और वैमानिकोंमें जैसा असुरकुमारोंमें कहा गया है वैसा जानना चाहिये । (जीवा णं भंते ! कि आभोगनिव्वत्तिया उया, अणाभोगनिव्वत्तियाउया ?) हे अदन्त ! जीव क्या आभोगनिर्वत्तिता युष्क अपनी इच्छासे आयुका बंध जिन्होंने किया है ऐसे होते हैं? या अनाभोगनिर्वतितायुष्क होते हैं ? ( गोयमा) हे गौतम! (णो आभोगनिव्वत्तिया उया, अणालोगनिव्वत्तियाउया-एवं नेरड्या विएव जाव वेमाणिया) जीव आभोगनिवर्तितायुष्क नहीं होते हैं, किन्तु वेएइ, एवं जाच मणुस्सेस, वाणमंतर. जोइसिय, वेगणिएस जहा अमुरकुमारेसु) જે જીવ પૃથ્વીકાચિકેમાં ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય હોય છે, એ જીવ આ ભવમાં રહેતા હોય ત્યારે કયારેક મહાદનાવાળા હોય છે અને કયારેક અપેદનાવાળો હોય છે. એજ પ્રમાણે ઉત્પદ્યમાન (ઉત્પન્ન થતાં) જીવના વિષયમાં પણ સમજવું પરન્તુ જ્યારે તે જીવ પૃથ્વીકાચિકેમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, ત્યાર બાદ તે તે વિવિધ પ્રકારની વેદનાને અનુભવ કરે છે. એ જ પ્રમાણે મનુષ્ય પર્યન્તના જીવોના વિષયમાં પણ સમજવું વાતવ્યન્તરે, તિષિકે અને વૈમાનિકોના વિષયમાં અસુરકુમારોના જેવું જ કથન સમજવું (जीवाणं भंते ! कि आभोगनिव्वत्तियाउया, अणाभोगनिवत्तियाउवा ? ) ભદન્ત! છો શું આભેગનિર્વત્તિતાયુષ્ક – એટલે કે અસાવધાનીથી આયુબંધ કર્યો डाय के मेवा खाय छ ? मनानामनिवतितायु४ जाय छ ? (गोयमा) गौतम । (णो आभोगनियत्तियाउया, अणाभोगनिव्यतियाउया-एवं नेरइया वि, एवं जाव वेमाणिया) ०१ मालामनिवतितायु०४ उता नथी, ५२न्तु मनाना
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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