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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.६ उ.१० मु.२ जीवस्वरूपनिरूपणम् २१३. कि जीवः चैतन्यम् ? अथवा जीवश्चैतन्य जीवो वन ते ? अत्र प्रथमजीवपदेन जीवस्य, द्वितीयेन तु चैतन्यस्य ग्रहणादुक्तमश्नः संगच्छते । भगवानाह'गोयमा ! जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे', हे गौतम ! जीवचैतन्ययोः परस्परमविनाभावसम्बन्धत्वात् जीवस्तावत् नियमाद् अवश्यमेन जीवः चैतन्यं वर्तते, अथच जीवोऽपि चैतन्यमपि नियमाद् अवश्यमेव जीव इति भावः । गौतमः पृच्छति-'जीवेणं भंते ! नेरइए, नेरइए जीवे ?' हे भदन्त ! जीवः खलु कि नैरयिको भवति ? नैरयिको वा किं जीवो भवति ? जीधे' जीव चैतन्यरूप है ? या चैतन्य जीवरूप है ? यहाँ पर प्रथम जीव पद जीव का वाचक है और द्वितीय जीवपद चतन्यका वाचक है इसलिये यह प्रश्न संगत होजाता है । इस के उत्तरमें प्रभु गौतम से कहते हैं कि- 'गोयमा' हे गौतम! 'जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे' जीव में और चैतन्य में परस्पर अविनामाव संबंध है- इस कारण जीव नियमतः चैतन्यरूप हैं तथा चैतन्य भी नियमतः जीवरूप है । तात्पर्य यह है कि जीव के विना चैतन्य और चैतन्यके विना जीव की कहीं पर भी उपलब्धि नहीं होती हैंइसलिये जहां पर जीवत्व हैं वहां चैतन्य है और जहां पर चैतन्य है वहां पर जीवत्व हैं । जीवत्व को छोडकर चैतन्य का और चतन्य को छोडकर जीवत्वका स्वतन्त्र सद्भाव इसलिये नहीं पाया जाता हैं । अय गौतम प्रभुसे पूछते हैं कि- 'जीवेणं भंते ! नेरइए, नेरइए जीवे?' - हे भदन्त! जीव क्या नैरयिक रूप होता है ? या नैरयिक जीवरूप gવરૂપ છે? અહીં પહેલું “જીવ” પદ જીવન વાચક છે, અને બીજું “જીવ' પદ ચૌતન્યનુ વાચક છે. તેથી પ્રશ્નમાં અસંગતતા રહેતી નથી. ગૌતમ સ્વામીના તે પ્રશ્નને उत्तर मापता महावीर प्रभु ४ छ- 'गोयमा! गौतम ! 'जीवे ताव नियगा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे' मा भने शैतन्यमा ५२२५२ मविनामा समय હોય છે, તે કારણે જીવ નિયમથી જ ચૈતન્યરૂપ છે, તથા ચૈતન્ય પણ નિયમથી જ જીવરૂપ છે. આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે જીવ વિના તન્યની અને ચૈતન્ય વિના જીવની કઈ પણ સ્થળે સંભાવના હોતી જ નથી, તેથી જ્યાં જીવત્વ છે ત્યાં ચૈતન્ય હોય છે, અને જ્યાં ચૈતન્ય હોય છે ત્યા જીવ પણ હોય છે જીવત્વ સિવાયના ચૌતન્યનો અને ચન્ય સિવાયના છવત્વને સ્વતંત્ર સભાવ આ કારણે જોવામાં આવતો નથી. હવે गौतम २वामी महावीर प्रभुने अवो प्रश्न पूछे छे ?- 'जीवे णं भंते! नेरइए, नेरइए जीवे? ' महन्त ! 4 २१४३५ डाय छ, २५ १३५ डाय ?
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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