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________________ - प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.६ उ.९.२ महदिकदेवविकुर्वणास्वरूपनिरूपणम् १७१ अन्यत्र स्थितान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति ? एकवर्णम् एकप्रकारकाकारं च स्वशरीरादिकं विकुर्वणया निष्पादयति ? भगवानाह- 'गोयमा ! णो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वई' हे गौतम ! देवः खलु नो इहगतान प्रज्ञापकासनक्षेत्रस्थितान पुद्गलान् पर्यादाय गृहीत्वा विकुर्वति, 'णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वई' नापि अन्यत्रगतान् लोकमध्ये स्त्र समीपस्थानादपरत्रस्थितान् पुद्गलान् पर्यादाय विकुति अपितु 'तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वह' तत्रगतान् देवलोकस्थितान् पुद्गलानेव पर्यादाय विकुर्वति, देवो हि मायः स्वस्थाने एव विकुर्वणां करोति, कृतोत्तरबैंक्रियरूपस्येव भिभस्थान में स्थित हुइ पुद्गलोंको ग्रहण करके विकर्षणा कर सकने में समर्थ होता है ? इसके उत्तरमें प्रभु गौतम से कहते हैं कि'गोयमा' हे गौतम ! 'णो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउच्चइ' देव जो एकवर्णवाले तथा एक आकारवाले अपने शरीर आदिकी विकुर्वणा द्वारा नीष्पत्ति करता है सो वह इहगत पुद्गलोंको ग्रहण करके नहीं करता है और 'णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ' न प्रज्ञापक के समीपस्थक्षेत्र से एवं देवलोक से भिन्न क्षेत्रस्थ पुद्गलों को ग्रहण करके ही करता है,। किन्तु 'तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वइ' देवलोकस्थ पुद्गलोंको ग्रहण करके ही करता है क्यों कि देव प्रायः अपने स्थान में ही विकुर्वणा करता है। अपने स्थान में विकुर्वणा करके-अर्थात् उत्तर वैक्रियरूप का निर्माण करके हो देव का गमन प्रायः अन्यत्र देखा जाता है। અન્ય ક્ષેત્રમા (દેવલોક અને આ ક્ષેત્ર સિવાયના ક્ષેત્રના) રહેલાં પુદગલેને ગ્રહણ કરીને વિકૃણ કરી શકે છે? तना उत्तर भापता महावीर प्रभु ४ छ- 'गोयमा !" गौतम ! ' णो इगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वा' हेरे मे४ १ तथा ४ मा२पणा પિતાના શરીર આદિની વિદુર્વણા દ્વારા નિષ્પત્તિ (નિમણ) કરે છે, તે અહીં રહેલાં Yगाने पर शक ४२तो नथी, भने णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउबई' અન્ય ક્ષેત્રના (પ્રજ્ઞાપકની (ઉપદેશક) સમીપના ક્ષેત્રના અને દેવલેક સિવાયના ક્ષેત્રના भुगतान यह शन ५ ते मेवी विए तो नथी, परन्तु 'तत्थगए पोग्गळे परियाइत्ता विकुबइ पसाउथ पुगसान ४५ मेवा विव ४२ . કારણ કે દેવ સામાન્ય રીતે પોતાના સ્થાનમાં જ વિકુર્વણું કરે છે પિતાના સ્થાનમ વિદુર્વણુ કરીને - એટલે કે ઉત્તર વિક્રિય રૂપનું નિર્માણ કરીને જ –દેવ સામાન્ય રીતે અન્યત્ર ગમન કરતા હોય છે.
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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