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________________ ... प्रमेयचन्द्रिका टीका श.६ उ.९ सू.२ महर्द्धिकदेवविकुर्वणास्वरूपनिरूपणम् - १६५.., गमेन यावत् - एकवर्णम् , एकरूपम् १, एकवर्णम् अनेकरूपम् २, अनेक वर्णम एकरूपम् ३, अनेकवर्णम् अनेकरूपम् ४, चतुर्भङ्गः, देवः खल्लु भदन्त ! महद्धिकः यावत्-महानुभागो, वाह्यान् पुद्गलान् । अपर्यादाय प्रभुः कालकपुद्गलं नीलकपुद्गलतया विपरिणमयितुम् ? नीलकपुद्गलं वा कालकपुदगलतया परिणमयितुम् ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, पर्यादाय प्रभुः । स खलु भदन्त ! किम् इहगतान् पुद्गलान् ? तदेव, नवरम्- परिणमयतिएगवन्नं अणेगरूवं, अणेगवन्नं एगरूवं, अणेगवन्नं अणेगरूवं चउभंगो) इस प्रकार से इस गम द्वारा यावत् एकवर्ण वाले एकरूप की, एकवर्णवाले अनेकरूपों को, अनेक वर्णों वाले एकरूप की, और अनेक वर्णों वाले अनेकरूपों की वह देव विकुत्रंणा कर सकता है ये चार भंग होते हैं। (देवेणं भंते! महिढिए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू कालगपोग्गलं नीलयपोग्गलत्ताए परिणामैतए, नीलगपोग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए) हे भदन्त ! महद्धिक यावत् महानुभाववाला देव बाहर के पुदगलों को ग्रहण नहीं करके क्या काले पुद्ग को नीले पुद्ग के रूप में परिणमा सकता है क्या? अथवा- नीले पुद्गल को काले पुद्गल के रूप में परिणमा सकता है क्या? (गोयमा) हे गौतम! (णां इणद्वे स्लम) यह अर्थ समर्थ नहीं है। (परियाइत्ता पभू) पर वह बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके पूर्वोक्तरूप से नीले को कालेरूप में और कालेपुदगलको नीलेपुद्गल के रूप में परिणमा सकता है। (से णं भंते ! कि इहगए एगवन्न, एगरूवं, एगवन्न अणेगावं, अणेगवन्न एगरूवं, अणेगवन्न चउभंगो) मा ना माता५३५ मम दाश (यावत) ते वाणा ४ ३५नी, मे વર્ણવાળા અનેક રૂપની, અનેક વર્ણવાળા એક રૂપની, અને અનેક વર્ષોવાળાં અનેક રૂપની વિક્ર્વણ કરી શકે છે, એ પ્રકારના ચાર ભાગ ( વિકલ્પ) થાય છે. ( देवे णं भंते ! महिडूढिए जाव महाणुभागे वाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू कालगपोग्गलं नीलगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? नीलगपोग्गल वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए) डे HE-! महद्धि, मामा माथिा ચુત દેવ શું બહારના પુદ્ગલેને ગ્રહણ કર્યા વિના શું કાળા પુદગલરૂપે નિલ પુદ્ગલરૂપે પરિણમાવી શકવાને સમર્થ હોય છે ખરે? અથવા શું તે નલ युगसने ३२ परिभावी श छे भरे। ? (गोयमा!) गौतम! (णो इणट्रे समटे) मे सभी शतु नथा, परन्तु (परियाइत्ता प) ते व બહારનાં પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને કાળા પુદ્ગલને નીલા પુગલરૂપે અને નીલા પુદ્ગલને शत३२ परिशभावी पाने समर्थ खोय छे. (सेणं भंते ! कि इहगए
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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