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प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ६ उ.८ स.३ लवणसमुद्रस्वरूपनिरूपणम् १५. णामा वि, जीव परिणामावि, पोग्गलपरिणामा वि' इत्यादि । तथा सर्वजीवानाम् उत्पादो नेतव्यो द्वीपसमुद्रेषु, तथाहि-'दीव-समुद्देसु णं भंते ! सव्वे पाणा, भूया, जीवा, सत्ता पुढविकाइयत्ताए, जाव- तसकाइयत्ताए उववन्नपुव्वा ? हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो त्ति' अन्ते गौतमः प्राह- 'सेवं भंते ! सेव भंते ! ति' हे भदन्त ! तदेवं भवदुक्तं सत्यमेव, हे भदन्त ! तदेवं भवदुक्तं सत्यमेवेति भावः ॥ सू० ३ ॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगहल्लभ-द्धिवाचक-पञ्चदशभाषाकलित-ललितकलापालापक-प्रविशुद्ध-गधपधनैकग्रंथनिर्मापक-वादिमानमर्दक श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराज-प्रदत्त "जैनशास्त्राचार्य" पदभूषित कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारी-जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालबतिविरचितायां "श्री भगवतीमूत्रस्य" प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां षष्ठशतके अष्टमोद्देशकः
___ सम्पूर्णः ॥६-८॥
जानना चाहिये- 'दीव समुद्देसु णं भंते ! सब्वे पाणा, भूया, जीया, सत्ता, पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववन्नपुवा ? हंता, गोयमा! असई अदुवा अणंतनुत्तो ति" गौतमस्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! द्वीपो और समुद्रों में समस्त प्राण, समस्त भून, समस्त जीब, समस्त सत्त्व क्या पहिले पृथिवीकायिक रूप से यावत् सकायिक रूप से उत्पन्न हो चुके हैं ? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं कि हां, गोतम ! समस्त प्राण, समस्त भूत, समस्त जीव, समान सत्व अनेक द्वीपों और समुद्रों में अनेक बार अथवा अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं। प्रभु द्वारा इस प्रकार का प्रतिपादन सुनकर ___गौतम २वाभीत प्रश्न- दीवसमुद्देसु णं भंते ! सव्वे पाणा, भूया, जीवा, सत्ता पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उवचन्नपुव्वा ?" मानता દીપે અને સમુદ્રોમા શુ સમસ્ત પ્રાણ, સમસ્ત ભૂત, સમરત છવ અને સમસ્ત સત્ત્વ પીકામથી લઈને ત્રસકાય પર્યન્તની પર્યાયમાં પહેલાં ઉત્પન્ન થઈ ચૂક્યાં છે ?
महावीर प्रभु तेन। उत्तर भापता ४ थे- "हंता, गोयमा ! अदुवा अणंतखत्तो नि" , गौतम ! समस्त प्राण, भूत, ७५ भने सत्व या मने पा२ अथवा