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________________ • प्रमेवचन्द्रिकाटीका व. ६ उ. ८ सू. २ आयुर्वन्धस्वरूपनिरूपणम् १३३. स्ते जातिनामनियुक्तायुष्काः ? इति चतुर्थः । एते चत्वारो भङ्गा जाति नाम्ना सह भवन्ति । एवमन्येऽपि पञ्च इत्यादयः संयोज्याः, तेन संकलिता जाताः सर्वे चतुत्रिंशतिभङ्गाः । अथ पश्चमभेदमोह - ५ ' जाइगोयनिहत्ता' जातिगोत्र निघता: १ जातेः एकेन्द्रियादिकायाः यदुचितं गोत्रम् नीचगोत्रम् उच्चगोत्रं बजातिगोत्रं निधतं प्रकृष्टबन्धं यैस्ते जातिगोत्र निघत्ता ः ' एवमन्येऽपि, निकाचित किया है अर्थात् भोगे विना नाश होने के लायक नहीं किया है, किन्तु भोग करके ही नाश होने के योग्य किया है, अथवा वेदनक्रिया में उसे स्थापित किया है - जिसका वेदन करना प्रारंभ कर दिया है वे जातिनामनिधत्तायुष्क जीव हैं । ये चार भङ्ग नाति नामके साथ होते हैं । इसी तरहसे दूसरे भी पांच गत्यादिकोंके ४-४ भंग मिला लेना चाहिये, अर्थात् जाति नाम के जिस तरह से चार भंग कहे गये है उसी प्रकार से गति, स्थिति, अवगाहना आदि ५ के भी ४-४ भंग कर लेना चाहिये । इससे एक २के ४-४ भंग होने से २० भंग हो जाते हैं और इनमें पूर्वोक्त ४ भंग मिला देने से २४ भंग हो जाते हैं । अप पांचवें भेदको प्रकट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं 'जाइगोयनिहत्ता' जातिगोत्रनिधत जातिगो निधन्तका अभिप्राय ऐसा है कि जिन जीवोंने जाति और गोत्रको निधत किया है वे जातिगोत्र निघत्त हैं । एकेन्द्रिय आदि जाति के ऊचित जो गोत्र - नीचगोत्र और उच्चगोत्र वह जातिगोत्र है इस जाति गोत्रको जिन जीवोंने निधन्त - प्रकृष्टबंधवाला किया है वे जीव जातिगोत्रनिधत्त हैं । इसी तरहसे अन्य जाति नाम आदि पांच ભાગળ્યા વિના નાશ ન થઈ શકે એવું કર્યુ છે, અથવા વેદનક્રિયામાં તેને સ્થાપિત કરી વધું છે. – જેનુ વેદન કરવાનુ શરૂ કરી દીધું છે, એવાં જીવાને જાતિનામ નિધત્તાયુષ્ય જીવો કહેછે . આ ચાર ભંગ જાતિનામ સાથે થાય છે. એજ પ્રમાણે ગતિ, સ્થિતિ, અવગાહના આદિ પાચની સાથે પણ ૪-૪ ભગ (વિકલ્પ) કરી લેવા તે દરેકના ચાર, ચાર ભગ યતા હાવાથી પાંચેના મળીને ૨૦ ભંગ થાય છે તેમાં જાતિનામ સાથેના ચાર ભંગા ઉમેરવાથી ૬ પદાના કુલ ૨૪ ભંગ થાય છે. હવે સૂત્રકાર પાંચમા ભંગ પ્રકટ કરે છે— जाइगोयनिहत्ता " "लति गोत्र निघत्त" ने वो लति भने गोत्रने निघत्त કર્યો હોય છે એવાં જીવાને “જાતિગોત્રનિહન્ત” કહે છે. એકેન્દ્રિય આદિ જાતિને ચેાગ્ય જે ગાત્રઉચ્ચ ગાત્ર અને નીચ ગાત્ર છે, તેને જાતિગોત્ર કહે છે. આ જાતિગોત્રને જે अवको निघत्त – अदृष्ट अधवाणु - रेस छे, ते वाने लतिगोत्रनिषत्त ४ . न 66
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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