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________________ पमेयचन्द्रिका टीका श.६ उ.८ सू.१ पृथिवीस्वरूपनिरूपणम् 'देवोवि पकरेइ, असुरो वि पकरेइ, नागो वि पकरेइ' देवोऽपि प्रकरोति, असुरोऽपि प्रकरोति, नागोऽपि प्रकरोति संस्वेदनादिकमिति भावः । गौतमः पृच्छति-'अत्थिणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवी) वायरे थणिय सद्दे ?' हे भदन्त ! अस्ति संभवति खलु अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् वादर. स्थूलः स्तनितशब्दः घनगर्जनम् ? । भगवानाह 'हंता, अत्थि, तिण्णि वि पकरेंति' हे गौतम ! हन्त, सत्यम् रत्नप्रभायां वादरः स्तनितशब्दः अस्ति संभवति । तं च स्तनितशब्दं त्रयोऽपि देवासुरनागाः प्रकुर्वन्ति । गौतमः पृच्छति 'अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहेवायरे अगणिकाए ? ' हे भदन्त ! अस्ति संभवति खलु अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् अधः अधोभागे कहते हैं 'देवो वि पकरेइ, असुरो वि पकरेइ, नागो वि पकरेइ' देवभी करता है असुर भी करता है और नाग भी करता है अब गौतमस्वामी प्रभुसे पुनः पूछते हैं कि 'अत्थि णं अंते। इमीसे रयणप्पभाए बायरे थणियसद्दे' हे भदन्त ! अधस्थित इस रत्नप्रभा पृथिवीमें बादर स्थूल स्तनितशब्द मेघगर्जना होती है क्या ? यहां पर जहां२ यह 'अत्थि' शब्द आया है वह 'संभातकिम्' क्या ऐसा हो सकता है। इस संभवना अर्थमें प्रयुक्त हुआ है इसके उत्तरमें प्रभु उनसे कहते हैं 'हंता अस्थि, तिणिवि पकरेंति' हां, गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवीमें बादर स्तनित शब्दका होना संभवित है और इसे वहीं देव, असुर एवं नाग करते हैं । पुनः गौतमप्रभु से प्रश्न करते हैं कि-'अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पकरेंति-देवो वि पकरेइ, असुरो वि पकरेइ, नागो वि पकरेइ' नणे ४२, એટલે કે દેવ પણ કરે છે, અસુર પણ કરે છે, અને નાગ પણ કરે છે. प्रश्न-'अस्थि णं भंते ! इमीसे रयप्पभाए पुढवीए वायरे थणियसदे ?' હે ભદન્ત! અધાસ્થિત આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં શું બાર (ધૂળ) સ્વનિત શબ્દ (મેઘગર્જના) याय छ ? उत्त२-'हंता, अत्थि, तिणि वि, पकरेंति', गौतम २त्नप्रमा પૃથ્વીમાં બાદર સ્વનિત શબ્દ (મેઘગર્જના) સંભવી શકે છે, અને તે ત્રણે દેવ, मसु२ मने नाग) ४२ छे. प्रश्नोमा 'अस्थि ५६ मे सभी श छ,' मेवा સંભવના અર્થમાં વપરાયુ છે प्रभ-'अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए अहे वायरे अगणिकाए ?' હે ભદન્ત! અધ સ્થિત આ રતનપ્રભા પૃથ્વીમા શુ બાદર અગ્નિકાય સંભવી શકે છે?
SR No.009315
Book TitleBhagwati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages880
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size50 MB
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