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प्रमैयचन्द्रिका टी० ० ६ उ0 ३ सु० ४ कर्मस्थितिनिरूपणम् 'आउगं हेहिल्ला.दो भयणाए' आयुष्कं कर्म तु अधस्तनौ आयौ द्वौ संज्ञी, असंज्ञी च भजनया-कदाचिद् बध्नीतः, कदाचिन्न वध्नीतः, अन्तर्मुहूर्तमेव तद्वन्धनात् , किन्तु ' उवरिल्ले न बंधइ ' उपरितनः अन्तिमः नोसंज्ञि-नोअसंज्ञी केवली सिद्धश्च आयुष्यं न बध्नाति । अथ भवसिद्धि विषयकं बन्धद्वारमाश्रित्य गौतमः पृच्छति'णाणावरणिज्ज कम्म किं भवसिद्धिए बंधइ ' हे भदन्त ! ज्ञानावरणीयं कर्म कि भवसिद्धिको बध्नाति ? ' अभासिद्धिए बंधइ' अभवसिद्धिको वा बध्नाति.? 'णोभवसिद्धिय-णोप्रभवसिद्धिए बंबइ ?' नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिको वा है तो वह इस शातावेदनीयरूप कर्म का बंध नहीं करता है। इसी कारण यहां पर (भजनया) ऐसा पद कहा गया है (आउगं हेछिल्ला दो भयणाए) तथा जो जीव संज्ञी और असंज्ञी हैं वे आयुकर्म को कदाचित् यांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं क्यों कि आयुकर्म का बंध एक अन्तर्मुहूतकाल में ही होता है। (उपरिल्ले न बंधइ) और जो नो संज्ञी नो असंज्ञीरूप केवली भगवान् और सिद्धपरमात्मा हैं वे आयुकर्म का बंध करते ही नहीं हैं।
अब सूत्रकार भवसिद्धिविषयबन्ध द्रारको लेकर कथन करते हैं-इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि-(णाणावरणिज्ज कम्मं किं भवसिद्धिए बंधइ) हे भदन्त ! ज्ञानावरणीय कर्म को कौनसा जीव इस बार की अपेक्षा से विचार करने पर बांधता है ? क्या भवसिद्धिक जो जीव होता है वह बांधता है ? या जो (अभवसिद्धिए बंधा) अभवसिद्धिक जीव होता है वह बांधता है ? (णाभवसिद्धिएं जोअभवसिद्धिए पंधह) શાતા વેદનીય કમીને બંધ કરતું નથી. તેથી જ અહીં એવું કહ્યું છે કે “ને सशी अनेन असशी" विधे वहनीय भना मध घरे छ. (आउगे हेडिल्ला दो भयणाए) संज्ञी मन मसजी ॐ मायुश्मन धमाधे छ પણ ખર, અને નથી પણ બાંધતા, કારણ કે આયુકમને બંધ એક અન્તभुत मir थाय छे. “. उवरिल्ले न बधइ " ना सभी मन ना असा રૂપ કેવલી ભગવાન અને સિદ્ધ પરમાત્મા આયુકર્મને બંધ કરતા નથી,
હવે સૂત્રકાર ભાવસિદ્ધિક બંધ દ્વારને અનુલક્ષીને નીચેની પ્રરૂપણા કરે છે—ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે --
(णाणावरणिज्ज णं. भंते ! कम्मं कि भवसिद्धिए बधइ ?) महन्त ! જ્ઞાનાવરણીય કર્મ કર્યો જીવ બાંધે છે? ભવસિદ્ધિક જીવ શું જ્ઞાનાવરણીય ४ मा छ १ मा “ अभवसिद्धिए बधइ १" शु. Halala ७१ या भ मांधे छ ? मय (पो भवसिद्धिए, णो अभषसिदिए बधा)