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प्रमेयचन्द्रिको टीका श० ६ ०० ३ ० १ महाकाल्पकर्मनिरूपणम् ८२६ दुप्फासत्ताए ' दुर्गन्धतया-दुर्गन्धत्वेन, दूरसतया कटुकत्यादिरसत्वेन दुस्पर्शतयाकर्कशकठोरादिस्पर्शतया अणिद्वत्ताए ' अनिष्टतया कस्यापि इच्छाया अविपयत्वेन ' अत-अप्पिय-असुभ-अमणुन्न-अमणामत्ताए, अणिच्छियत्ताए ' अकान्त तया अरमणीयतया, अप्रियतया प्रेमराहित्येन अमनोज्ञत्वेन, असुन्दरतया, अशुभत्वेन-अमङ्गलतया, अमनोऽमतया मनसा प्राप्तुमवाञ्छिततया, अनिच्छिततयामाप्तुमनभिवान्छितत्वेन 'अभिज्झियत्ताए अहत्ताए-णो उड्ढत्ताए' अभिध्यिततया (दूरसत्ताए ) कुत्सितरसवाला (दुप्फासत्ताए) कुत्सितस्पर्शवाला,-ककैश कठोर आदिस्पर्शवाला होता है क्या ? ( अणित्ताए ) किसी की भी इच्छा का विषय भूत वह नहीं बनता है क्या ? अर्थात् ऐसे शरीर धारी को कोई भी नहीं चाहता है क्या (अकंत-अप्पिय-असुभ-अमगुन्न-अमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए) वह सुन्दर नहीं होता है क्या ? कोई भी उससे प्यार नहीं करता है क्या ? किसी के भी सन को वह नहीं गमता है क्या ? कोई भी जीव क्या ऐसे व्यक्ति की मन से भी कभी याद नहीं करता है क्या ? अभिज्झियत्ताए अदत्ताए " नो उडताए" दुक्खत्ताए "नो सुहत्ताए भुज्जो २ परिणमइ " ऐसी स्थिति को प्राप्त करने का किसी को लोभ भी नहीं होता है क्या? वह सर्व प्रकार से क्या बिलकुल जघन्यरूप (नीचे परिस्थिति) में ही रहता है? कभी भी क्या वह उत्कृष्ट नहीं माना जा सकता है ? सदा उसमें दुःखों का ही वास रहता है क्या ? कभी भी क्या उसमें सुखरूपता को भासतक भी नहीं होता है ? इस रूप से ही वह क्या प्रत्येक क्षण २ में परिणामित होता रहता है ? तात्पर्य पूछने का केवल यही है कि ४२२५ २५शवाणु (४४श, २ पिशवाणु') थाय छे भई १ (अणि. टुत्ताए) शुभवा ने अपर या नथी ? (अकन्त, अप्पिय, असुभ, अमणुन्न, अमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए) शुत सुंदर तो नथी १ शुमार તેના પર પ્રેમ રાખતું નથી ? શું કોઈના મનને તે ગમતું નથી ? શું કોઈ ५] व्यक्ति सेवा ने भनथी ही या ४२ती नथी ? (अभिज्झियत्ताए अहत्ताए, नो उडूढताए, दुक्खत्ताए नो सुहत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ ) मेवा સ્થિતિને પ્રાપ્ત કરવાને શું કેઈને પણ લાભ થતું નથી ? શું તે સર્વ પ્રકારે અધમ દશામાં જ રહે છે? શું કદી પણ તેની ઉન્નતિ થતી નથી ? શું સદા તેને દુખે જ સહન કરવા પડે છે? શું તેને કદી પણ સુખને ભાસમાત્ર પણ થતું નથી? આ પ્રકારે જ શું તે સદા પરિણમિત થતું રહે છે ?