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भगवतीस
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चिति ? ' सदा समितं पुद्गलाः चीयन्ते ? ' सया समियं पोग्गला उवचिज्जंति' सदा समितं पुद्गला उपचीयन्ते ? ' सया समियं च णं तरस आया ' सदा सर्वदा समितं सततं च खलु तस्य महाकर्मादिमतो जीवस्य आत्मा, यस्य जीवस्य पुद्गलाः वध्यन्ते तस्य आत्मा-शरीररूपबाह्यात्मा 'दृचत्ताए, दुब्वण्णत्ताए ' दुरू पतया कुत्सितरूपतया, दुर्वर्णतया कुत्सितवर्णतया ' दुगंधत्ताए, दुरसत्ताए ऐसा व्यवहार हो जाता है सो ऐसी बात यहां नहीं समझनी चाहिये अर्थात् ऐसा जीव तो सदा-हमेशा - निरन्तर ही अन्तर-व्यवधान पड़े बिना ही - कर्मों का बंध करता रहता है क्या ? उसका जबतक वह संसारदशा में इस स्थितिचाला बना रहता है ऐसा एक भी समय नहीं निकलता है क्या कि जिसमें उसके कर्मबंध न होता रहता हो ? कर्मबंध हो जाने के बाद (सया समियं पोग्गला चिज्जति) निरन्तर उस के वे बंधदशा को प्राप्त हुए कर्म वर्गणारूप पुगल चयरूप में और (सयासमियं पोग्गला उवचिज्जति) उपचयरूप अवस्था में आते रहते हैं क्या? (सया समियं च णं तस्स आया ) जिस महाकर्म आदि विशेषणोंवाले जीव के निरन्तर कर्मल बंधते रहते हैं उस जीव का आत्मा - याह्य शरीररूप आत्मा (दुरूत्ताए, दुवण्णत्ताए ) कुत्सितरूपता के कुत्सि - तवर्णता से युक्त होता रहता है क्या ? तात्पर्य पूछने का यह है कि ऐसे कर्मबंधनादिरूप भार से अधिक वजनदार बने हुए जीव का शरीर कुत्सितरूपवाला कुत्सितवर्णवाला ( दुग्गंधत्तार) कुत्सित दुर्गंधवाला
પડયા વિના ) કર્માના ખધ કરે છે. પ્રશ્નકાર એ જાણવા માગે છે કે મહાક આદિથી યુક્ત જીત્ર શુ સદા નિર'તર ઠર્માના ખધ કરતા રહે છે ?
જ્યાં સુધી તે સસારદશામાં એજ સ્થિતિવાળા રહે ત્યાં સુધી તે એક પણ એવે સમય વ્યતીત કરતા નથી કે જ્યારે તેના દ્વારા કર્મ બધ અદ્યાતા न होय. मध यह गया पछी ( सया समियं पोगाला चिज्जति ) ते वना मधवशाने पामेलां भवर्गलाइ युद्धसो शु निरंतर थय भने (सया समीय पोग्गला उवचिज्जति ) उपयय३य व्यवस्थाभां भावतां रहे छे ? (खया समिय चणं तस्स आया ) ने भहाउस आदि विशेषशोवाजा कवनां उर्भयुगस निरન્તર ખધદશાને પ્રાપ્ત કરતાં રહેતાં હાય છે, તે જીવના આત્મા ખાદ્ઘશરીર ३५ आत्मा - ( दुरुवत्ताए, दुवण्णत्ताए ) ३पताथी भने दुर्वगुताथी ( भराम વણું થી) શુ યુક્ત થતા રહે છે ? આ પ્રશ્નના ભાષા એ છે કે એવાં કખંધનાદિપ ભારથી અધિક વજનદાર ખનેલા જીવનું શરીર શું ખરાબ રૂપवालु, (दुगंधत्ताए ) दुर्ग धवाणु, (दूरसत्ताए) अराम रसवाणु, (दुप्फासताए)