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________________ - प्रमैयचन्द्रिका टीका श०५ उ०१ सू०३ ऋतुविशेषादिस्वरूपनिरूपणम् ५२. एवं पूर्वाङ्गम् , पूर्वम् , त्रुटिताङ्गम् , त्रुटितम् , अटटाङ्गम् , अटटम् , अचाङ्गम् , अववम् , हूहूकाङ्गम् , हूहूकम् , उत्पलाङ्गम् , उत्पलम् , पद्माङ्गम् , पद्मम् , नलिनाङ्गम् , नलिनम् , अर्थनिपूराङ्गम् ,अर्थनिपूरम् ,अयुनागम् , अयुतम् ,प्रयुताङ्गम् मयुतम् , नयुतागर , नयुतम् , चूलिकाङ्गस् , चूलिका, शीर्षप्रहेलिकाङ्गम् , शीर्षप्रहेलिकया, पल्योपमेन, सागरोपमेणापि, भणितव्यः। यदा खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणार्धे प्रथमावसर्पिणी प्रतिपद्यते तदा उत्तरार्धेऽपि प्रथमावसर्पिणी पतिपूर्वोग, पूर्व, श्रुटितांग, (तुडियेण चि, एवं, पुव्वंग, पुव्वे, तुडियंगे, तुड़िए, अडडंगे, अडडे, अक्वंगे, अबवे, हूहूयंगे, हहए, उप्पलंगे, उत्पले पउमंगे, पउमे) त्रुटिन, अटटांग, अटट, अववांग, अवक, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलाङ्ग, उत्पल,पद्मांग, पद्म (नलिणंगे, नलिणे, अत्थ जिउरंगे,अत्थणिउरे अउअंगे, अउए, उअंगे, उए, पउअंगे, पउए, चूलियंगे, चूलिए, सीसपहेलियंगे लीलपहेलिया,पलिभोवमेण सागरोवमेण विभाणियन्यो) नलिनांग, नलिन, अर्थनिपुरांग, अर्थनू पुर, अयुनांग, अयुन, नयुत्तांग, नयुन, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीपंप्रहेलिकांग, शीपंप्रहेलिका, पल्योपम और सागरोपम इन सब के विषय में इसी प्रकार से अभिलाप कह लेना चाहिये। (जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड़े पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड्ने वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ) हे भदन्त ! जब जंबुद्धीप नामके छोप में दक्षिणार्ध में प्रथम अवसर्पिणी काल होता है-तब उत्तरार्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी धूप (८४व्यायसिसम पूर्वा) त्रुटिain (तुडियेण वि, एवं पुव्वंगे, पुचे, तुडियंगे, तुडिए, अडडगे, अडडे, अववंगे, अववे, हूहूयंगे, हूहूए, उत्पलाङ्ग उत्पले, पउमगे पउमे नलिणंगे, नलिणे अणिउरंगे अत्थणिउरे, अउअंगे, अउए, णउअंगे, णउए, चूलियंगे, चूलिए, सीसपहेलिअंगे सीसपहेलिया, पलिओवभेण सागरोवमेण वि, भाणियव्यो) त्रुटित, मटटा, मटट,Aquil, १५, हुgxin, हु, Supein, S५,५in, ५, नलिनin, नलिन, मनिपुर, अर्थ नूपुर, अयुतin, मयुत, नयुतांत, नयुत, प्रयुतांत, प्रयुत, यूनिsin, यूलित, शीष प्रालि, शीप प्रसिस, પલ્યોપમ અને સાગરોપમ, એ બધાંના વિષયમાં પણ એજ પ્રકારના અભિલાપ કહેવા જોઈએ. (जयाणं भते ! जबुद्दीवे दीवे दाहिणढे पढमा ओसप्पिणी पडिवस्जइ, वया ण उतरड्ढे वि पढमा ओप्पिणी पडिवज्जइ) महन्त ! स्यारे दी५ नामना દ્વિીપમાં દક્ષિણમાં પ્રથમ અવસર્પિણી કાળ હોય છે, ત્યારે શું ઉત્તરાર્ધ
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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