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भगवती
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समयः समदेशः स्यान, न तु अर्धः अध्य अपदेशः स्यात्, तथा ' जडणं अम्मी ! नागमित्यपोगन्डा मअड्डा, समझा, सपएमा, ' हे आर्य ! विशेनापि एकमात्रात्यादिनाऽपि सर्वपुद्गलाः व्यवधि गमभ्याः समदेशाः स्युः नो अनर्थाः अध्याः, अपदेशाः तर्हि ' एवं ते रिपलेस, समझे, सपसे एवं यदुक्तरीत्या ते तत्र गादोऽपि = एक माकाशम देशमवगाह्य स्थितोऽपि पुद्गलः गाः समयः समदेशः स्यात्, नो अनर्थ : अमध्यः, अपदेशः, एवं ' जणं की अपेक्षा लेकर जो तुम ऐसा मान रहे हो कि समस्त पुद्गल सार्धं, सम य और प्रदेश है-वे अनर्थ, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं - तो परमाणु जो कि उनका सूत्र से सूक्ष्म अविभाज्य अंग है-भी पुल द्रव्य होने के नाते सार्थ, मध्य और प्रदेश होना चाहिये-परन्तु वह तो सिवान को मान्यता के अनुसार ऐसा माना नहीं गया है वह तो अनर्थ, अनन्य और अप्रदेश माना गया है-अप्रदेश का तात्पर्य है दो आदि प्रदेशों का अभाव; परमाणु में केवल एक हो प्रदेश होता है, दो आदि प्रदेश नहीं होते हैं । ( जणं अज्जो ! खेत्तादेखेण वि सव्वपोलास अड्डा, समज्ना, सपना ) और यदि क्षेत्रादेश को लेकर ऐसा माना जाये कि समस्त पहल साधे, समभ्य और सप्रदेश है तो एक आषण के प्रदेश को अवगत कर स्थिर हुआ भी पुद्गल - सार्व और प्रदेश मानना पडेगा, अनर्थ अमध्य और अप्रदेश वह नहीं माना जा सकेगा। इसी तरह से ( जहणं अज्जो । कालादेसेणं सन्चમાન્યતા અનુવર ની અપેક્ષાગ્ય સરસ્ત પુત્લાન અર્ધ ભાગથી યુક્ત, મધ્ય, નવી યુક્ત અને દરોથી યુક્ત માનવામાં આવે, અને તેમને અર્ધ અમધ્ય ને પ્રો થી નિશાનવામાં ન આવે. તો પુરાણુ કે જે દ્રશ્ય દ્રવ્યનું એકમ અને હિત્મ્ય અંગ છે, ન પણ પુલ દ્રવ્ય હાવાને કારણે अर्पन'। भने नर्मदेा भानयुं तु निद्धान्ननी मान्यता अनु ૬ નું પાન અનધ, અત્મ્ય અને પ્રદેશ હિત માનવામાં આવેલ नहि विनानुं ) ( जणं अज्जो ! Grst gr_7. &TY म ममया, सपना ) भने ने क्षेत्रनी
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વ કે અમરન પુલા અધ ભાગ, મધ્યભાગ અને नवना दीने रखेडा
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सबने
सुनाई थे तेने ध इति मानीस नहीं भेत्रमा (जणं असो !