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भगवती
कानां
यस्याननन्मिन मनि नहि संघानेन संक्षिप्तः सन्धो भवति, इति न. तर नापि तत्परिणतेः श्रवणात् नियमात् ते म्याग्नानाम्रो भवति, तत्र हेतुमाह -
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रोग-विकोयओ व अववद्धा । न कोण - त्रिकोण - मित्तम्मि संबद्धं ॥ ७ ॥ पाया--" दरगाहनाचा द्रव्ये संकोच-विकोचन अवबद्ध | संकोचनविकोचनमात्रे संबद्धम् ॥ ७ ॥
न तु अवगाहनाला येऽवयाऽनियतत्वेन संबद्धा, कथम् ? इति चेत् संकोचात्निरोपे पञ्चम्याः" इति संकोचादि परित्येत्यर्थः, अवगाहनाहि इयेीग-विक्रानयोग्भाने रूनि भवति, तत्सद्भावे च न भवति इत्येवं रीत्या नहीं चाहिये क्यों कि संधान क्रिया द्वारा स्कन्ध सूक्ष्मतररूप से भी परिधान हो जाता है. ऐसा देखा जाता है । अवगाहना के ना होने में कारण का प्रदर्शन करते हुए सूत्रकार कहते हैंगाहा, इत्यादि ।
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य में अवगाहनाद उसमें संकोच विकोच होने के कारण अनिमंद्र है- नियतरूप से संबद्ध नहीं है। तात्पर्य कहने का कि जयय में संकोच और विकोन होता है तब उसमें पूर्व श्री अवगाहना नहीं रहती अतः वह उसमें अनियत रूप से संबद्धित की गई है हमें जब तक संकोच नहीं होता है तबतक इसमें पूर्व अवगाहना संद्रित रहती है, अतः जिस तरह से संकोन विकी के असाव में अवगाहना क्रय के साथ संबधित रहती है उसी संकोच विकास नहीं रहता है, क्यों कि न होने पर भी द्रव्य तो कायम रहता ही है, इसी પરિણમે છે, એવુ' કથન
संवि
૫ સુમન્ત્ર (વધારે સકમ ) રૂપે પશુ ૬, ૧ માં આવે છે. બે વગનાના નાશ ધવાના કારણે બતાવવામાં આવે છે. "erce *, ££.
ઇ કચન પ્રકરને સદભાવ હોવાને કારણે અવશાતનાકાળ અનિન રૂપે સાત ઇં નિયત રૂપે સમૃદ્ધ નથી, કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે ત્યારે પ્રેમ નું વને સમજ થાય છે ત્યારે તેમાં પુત્રની અવગાયના રહેતી तथा मेनिन से नगदित यांची है या मां क्या भनी धुतेमां पूर्व भावना संदित ૨૮, ૧, ન અને નર્કંગન જુના ભાવમાં અવગાહના દ્રષ્યની સાથે दिन रहे थे, अम मात्र भद्धिम
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