________________
যনিরুদ্ধা ০ ০৭০৪ 0ৎ খাজাজিমখলিঙ্ক ৪৯, यस्मिन्नेव भवे अभिसमागच्छति-जन्म गृह्णाति, तत्रैव तस्मिन्नेव खलु भवे संवेदयति, अभ्याख्यानफलं दुःखादिकम् अनुभवति ' तओ से पच्छा वेदेइ । ततः स पश्चात् प्रतिसंवेदनानन्तरम् , वेदयति-निर्जरयति । अन्ते गौतमो वदति-सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति' तदेवं भदन्त ! तदेव भदन्त ! इति, हे भदन्त ! भवदुक्तं सर्व सत्यमेवेत्याशयः ॥ सू० ९॥ , इति श्री विश्वविख्यात - जगवल्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-विशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त जैनशास्त्राचार्य' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालबतिविरचिता श्री भगवतीसूत्रस्य प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां ।
व्याख्यायां पञ्चमशतकस्य षष्ठोद्देशकः समाप्तः ॥५-५॥ इनके फलोंको भोगता है-अर्थात् इस प्रकार की प्रवृत्ति से इसी प्रकार के फलयाले कर्मों का बंध कर जीव जिस गति में जन्म लेता है वह उसी गति में इनके धल स्वरूप दुःखादिकों का अनुभव करता है। (तओ से पच्छा वेदेह) और अनुभव करने के बाद उनकी निर्जरा करता है। तात्पर्य कहने का यह है कि ( नामुक्त क्षीयते कर्म" इस सिद्धान्त के अनुसार यहां पर यह प्रकट किया गया है कि जीव जिन अशुभ प्रवृत्तियों से दुःखद् कर्मो का धन्ध करता है वह उनका फल अवश्य ही या तो उस गृहीत भव में ही भोगलेता है और भोगने से जो बाकी बचता है उसे वह जहां भी जन्म धारण करता है वहां भोगता है इस तरह भोगते २ वह कभी उन कर्मों की निर्जरा भी कर देता है। ___ अन्त में अब गौतम स्वामी प्रभु के इस कथन की अन्तः करण से કે આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિથી એજ પ્રકારના ફળવાળાં કર્મોને બંધ કરીને જીવ જે ગતિમાં જન્મ લે છે, એ ગતિમાં તેના વિપાકરૂપ દુઃખાદિકને અનુભવ કરે છે. " तओ से पच्छा वेदेव" भन तेन अनुमप या पछी तनी नि। ४रे छ. ४वा तात्पर्य मे छ " नामुक्त क्षीयते कर्म " मा सिद्धांत मनुसार અહીં એ પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ છે કે જીવ જે અશુભ પ્રવૃત્તિ દ્વારા હરખપ્રદ કર્મોને બંધ કરે છે, તેનું ફળ અવશ્ય ભેગવે છે. કદાચ વર્તમાન ભવમાં તે ફળને પૂરેપૂરું ભેગવી ન લે, તે જેટલું ફળ ભેગવવાનું બાકી રહે તેટલું ફળ
ત્યાં જન્મ ધારણ કરે ત્યાં ભગવે જ છે. આ રીતે તેનું વેદન કરતાં કરતાં તે કયારેક એ કર્મોની નિર્જરા પણ કરી નાખે છે.