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__ भगवतीस परिसुंजित्ता भवइ ' यः खलु आधाकर्म भोजनम् ' अनवद्यम्-निरवद्यम् इति बहुजनमध्ये जनसभायाम् भाषिता-भापकः अथ च स्वयमेव परिभोक्ता भवति ' सेणं तस्स ठाणस्स जाव-अस्थि तस्स आराहणा ? स खलु पुरुषः तस्य स्थानस्य यावत्करणात-अनालोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोति नास्ति तस्य आराधना । यदिआलोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोति-अस्ति तस्याराधना, इत्यग्रे सर्वत्र योजनीयम् , 'एयं पि तह चेत्र, जाव-रायपिंडं ' एतदपि तथैव, उपर्युक्ताधार्मसम्बन्ध्यनवधताविपयकमनोऽवधारकवद् बोध्यम् , तदवधिमाह- यावत्-क्रीतकृतादारभ्य राजपिण्डम् राजपिण्डपर्यतं विज्ञेयम् , एवं च खलु आधाकर्म आहारम् अनवद्यमिति कृत्वा स्वयमेव तत्परिभोक्ता भवति स यदि तस्य स्थानस्य अनाप्रकट करके ( सयमेव परिजित्ता भवइ ) स्वयं अपने उपयोग में लोना और उपयोग में लाकर फिर (से णं तस्स ठाणस्स जाव अत्थि तस्स आराहणा) उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं करना-इस तरह अनालोचित अप्रतिक्रान्त बनो हुआ वह साधु यदि कालधर्म पाता है तो ऐसे साधु के शुनचारित्र रूप धर्म की आराधना नहीं होती हैप्रत्युत उसकी उसके द्वारा विराधना ही होती है। और यदि वह उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण कर लेता है और फिर काल करता है तो ऐसे साधु के ही आराधना होती है । इसी प्रकार से आगे के पदों के साथ भी समझना चाहिये " एयपि तह चेव जाव रायपिंडं" इस सूत्र पाठ द्वारा यही बात समझाई गई है । और साथ में वह कहा गया है कि क्रोतकृत आहार से लेकर राजपिंडतक ऐसा ही जानना चाहिये । अतः इस कथन से सूत्रकार ने हमें यह समझाया है कि जो साधु आधाकर्म आहार को अनवध समझकर स्वयं इसका परिभोक्ता अण्णबजे बहुजणस्स मम्झे भासित्ता सयमेव परि जित्ता भवइ से णं तस्स ठाणस्स जाव अस्थि तस्स आराहणा) मा सूत्र द्वारा प्रट ४२वामा मारा छ. ५५y જે તે સ્થાનની (તે દેષના કારણેથી) આચના અને પ્રતિક્રમણ કરીને મરણ પામે છે, તેના મૃત ચાગ્નિરૂપ ધર્મની આરાધના થાય છે, વિરાધના થતી નથી. ( एयं पि तह चेव जाव रायपिंड) मा सूत्रपा8 द्वारा उपयुत पात सभ. જાવવામાં આવી છે. ફીતકૃત આહારથી લઈને રાજપિંડ પર્યરતના આહારને અનુલક્ષીને પણ આ પ્રકારના આલાપકો જ ગ્રહણ કરવા ઉપર્યુક્ત કથનથી સૂત્રકારે એ વાત સમજાવી છે કે જે સાધુ આધાકર્મ આહારને એટલે કે દોષ ચુક્ત અને અકલ આહારને નિર્દોષ સમજીને તેને પિતાના ઉપગમાં લે,