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________________ _४३ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० ५ १० ६ सू० ३ धनुर्विषये निरूपणम् तापयति, क्लमयति, स्थानात् स्थानं संक्रमयति, जीविताद् व्यपरोपयति 'तावं चणं से पुरिसे काइयाए, जाव चउहि किरियाहिं पुढे' तापच्च खलु स वाणोत्क्षेपका पुरुषः कायिक्या यावत्-प्राणातिपातक्रियां विहाय चतसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः । एवम्-'जेसि पि यणं जीवाणं सरीरेहिं धणू निव्वत्तिए, तेवि जीवा चउहि किरियाहि' येषामपि च जीवानां शरीरैः धनुः नितितं निष्पादितम् , तेऽपि जीवाः चतसभिः क्रियाभिः स्पृष्टाः भवन्ति इत्यग्रेणान्वयः, तथा 'धणुपुढे चउहि, हारू चउहि, उम् पंचहिं, सरे, पत्तणे, फले, हारूपंचहि ' धनुः पृष्ठ दण्डगुणादि समुदाय रूपउन्हें गोले जैसा गोल बना देता है, उन्हें श्लिष्ट कर देता है, आपस में एक दूसरे के साथ एक दूसरे को चिपका सा देता है, परस्पर में उन्हें एक दूसरे के शरीर के साथ रगडवा सा देता है, उनके अङ्गोपाङ्गों को वह छू भी लेता है, सब तरह से उन्हें वह पीडा भी देने लगता है, उन्हें तिलमिला देता है, एक स्थान से दूसरे स्थान पर उन्हें पहुंचा देता है और अन्त में उनके जीवन से उन्हें वियुक्त भी कर देता है, अतः वह बाण प्रक्षेपक पुरूष कायिकी क्रिया से लेकर चार स्पृष्ट होता है-प्राणातिपातिकी क्रिया यहां छोड़ दी गई है। ( एवं जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहिं धणू निव्वत्तिए, ते वि जीवा चउहि किरियाहिं ) इसी तरह से जिन जीवों के शरीरों से वह धनुष वना है, वे जीव भी चार क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं । (धणु पुढे चउहिं) धनुः पृष्ट भी चार क्रियाओं से, (जीवा चउहिं) धनुष की डोरी भी चार क्रियाओं से, (हारु चउहिं ) स्नायु भी चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है । परन्तु (उसु पंचहिं ) जो इषु-शर, पत्र, फल और स्नायु का समुदाय रूप जो बाण है वह पंच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है, दण्ड गुण રહિત કરવા પર્યન્તની ઉપરોક્ત સઘળી ક્રિયાઓ કરતું હોય, ત્યારે તે બાણ ફેંકનાર ધનુર્ધર કાયિક ક્રિયાથી શરૂ કરીને ચાર કિયાઓથી પૃષ્ટ થાય છે પ્રાણાતિપાતિકી ક્રિયાથી તે ધૃષ્ટ થતું નથી. એટલે કે પ્રાણાતિપાતિકી કિયા જન્ય કર્મબંધ તે કરતે નથી–બાકીની ચારે ક્રિયાજન્ય કર્મબંધ કરે છે (एवं जेसि पि य ण जीवाण सरीरेहि धणू निव्वत्तिए, ते वि जीवा चउहि किरियाहि) मे प्रभारी पतस्पतिय मोहि वानी शरीरमाथा તે ધનુષ બન્યું હોય છે, તે જીવો પણ કાયિકી આદિ ચાર કિયાજન્ય કર્મ मध ४रे छ. (धणुपुढे चउहि) धनुष्ट ५ यार यामाथी, (जीवा चउहि) धनुषना डोरी पण यार यामाथी (हारू चउहि ) भने धनुषने मांधवानी ચામડાની દેરી પણ કાયિકી આદિ ચાર કિયા એથી સ્પૃસ્ટ બને છે–એટલે
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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