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भगवतीसूत्रे जीवाणं सरीरेहिं धणुं निघत्तिए ते वि य णं जीवा काइयाए, जाव-पंचहि किरियाहिं पुट्ठा । एवं धणू पुढे पंचहिं किरियाहिं, जीवा पंचहिं, आहारू पंचहिं, उसूं पंचहिं, सरे, पत्तणे फले, पहारू पंचहिं ।। सू०३ ॥
छाया-पुरुषः खलु भदन्त ! धनुः परामृशति, धनुः परामृश्य इषु परामृशति, इषु परामृश्य स्थाने स्थित्वा आयतकर्णायतमिषु करोति, आयतकर्णायतमिधू कृत्वा ऊर्ध्वम् विहायसि इषुम् उद्विध्यति, ततः तस्मिन् इपौ ऊर्ध्वम् विहायलि उद्विद्ध सति, यान् तत्र प्राणान् , भूतान् , जीवान् , सत्चान् , अभिहन्ति, वर्तयति, ले पयति, संघातयति, संघट्टयति, परितापयति, क्लमयति, स्थानात् स्थानं संक्रमयति, जीविताद् व्यपरोपयति, ततः खलु भदन्त ! स पुरुषः कतिक्रियः? गौतम !
पुरुष की धनुविषयक क्रिया वक्तव्यता'पुरिसेणं भंते ! इत्यादि। सत्रार्थ-(पुरिसे णं भंते ! धणु परामुसह ) हे भदन्त ! कोई एक पुरुष हो और वह धनुष को ग्रहण करे (परामुसित्ता उतुं परामुसइ) बाद में धनुष ग्रहण करने के पश्चात् वाण को ग्रहण करे. (परामुसित्ता ठाणं ठाइ) और बाण को ग्रहण करके फिर वह किसी स्थान पर जाकर बैठ जावे (ठिच्चा ) बैठ कर (आययकन्नाययं उसुं करेइ ) फिर उस बाण को चढ़ाने के लिये धनुष को कानतक खींचे (आययकण्णा. ययं उतुं करिता उडूं वेहायसं उविहिए समाणे जाई तत्थ, पाणाई, भूयाई, जीवाई सत्ताई अभिहणइ, वत्तइ, लेसेइ, संघाएइ, संघटेइ, परितावेइ, किलामेइ, ठाणाओ ठाणं संकामेइ-जीवियाओ ववरोवेइ, तएणं भने । से पुरिसे कई किरिए ) धनुष को कानतक खींचे फिर
धनुषा पुरुषनी वतन्यता-- 'पुरिसेणं भंते ! 'या
सूत्राथ-(पुरिसे ण भते । धणु परामुसइ) Hand I मे पुरुष धनुष्यने अड] ४२, (परामुसिता उसु परामुसइ) तने १७य या पछी मायने अक्षय ४२, ( परामुसित्ता ठाणं ठाइ) धनुष्य भने माने अड ४ीन ते
ई स्थणे धन मेसी तय ठिचा) त्यां मेसीन (आययकन्नाययं उसु फरेह) ते धनुष्य ५२ माय यावाने भाटते धनुयने न सुधा में थे, (आयय कण्णाययं उसु करित्ता उनु वेहायसं उधिहिए समाणे जाई तत्थ, पाणाई, भूयाई', जीवाई, सत्ताई अभिहणइ, वत्तेइ. लेसेइ, संघाएइ, संघट्टेइ, परितावेइ, किलामेइ, ठाणाओ ठाण संकामेइ-जीवियाओ ववरोवेइ, तएणं भते ! से पुरिसे कइ किरिए)