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________________ अमेयचन्द्रिका टीका श० ५ १०३ २०११ केवलीप्रणीतमनोवचः निरूपणम् ३०३ तस्थणं अणंतरोववनगा न जाणंति, परंपरोववन्नगा जाणंति' तत्र तेपो मध्ये खलु अनन्तरोपपत्रका न जानन्ति, परम्परोपपन्नकास्तु जानन्ति । तत्रापि गौतमः कारणं पृच्छति-से केणणं भंते ! एवं वुच्चा-परंपरोववनगा जाव-जाणंति?' .हे भगवन् ! तत् केनार्थेन एवम् उच्यते यत्-परम्परोपपन्नकाः यावत्-जानन्ति ? भगवानाह-'गोयमा । पर परोववनगा दुविहा पण्णत्ता-पज्जत्तगा य, अपज्जत्तगा य, 'हे गौतम ! परम्परोपपन्नकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, पर्यासकाथ, अपर्याप्तकाच, 'तत्थ णं पज्जत्ता जाणंति, अपज्जत्ता न जोणति' तत्र तेषां मध्ये ल्ल पर्यातकाः जानन्ति, अपर्याप्तका न जानन्ति, पक्षक सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव हैं, वे तो केवली के प्रकृष्ट मन, और 'वचन को नहीं जानते हैं, तथा जो परम्परोपपत्रक सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव हैं वे ही केवली के प्रकृष्ट मन और वचन को जानते हैं, यही बात' तत्थ णं अणंतरोववनगान जानंति परंपरोचवन्नगा जाणंति' इस सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है। " परंपरोपपन्नक सम्पदृष्टि वैमानिक देव ही जानते हैं" इस में हे सदन्त ! क्या कारण है-इस .गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं कि 'गोयमा।' गौतम ! 'परंपरोववनगा दुविहा पण्णत्ता' परम्परोपपत्रक सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गये हैं, एक पर्यातक और दूसरे अपर्या. सक यही बात 'पज्जत्तगाय अपज्जत्तगा य' इस सूत्रपाठ दाग प्रकट की गई है। तत्थ णं पज्जत्तगा जाणत, अपज्जत्तगाण जाणनि' इनमें जो पर्यासक है वे ही जानते हैं । अपर्याप्तक नहीं क्यों कि जानने का काम मन की सहायता से होता है और वह अपर्याप्तक अवस्था में होता नहीं है । तथा दूसरी बात यह भी है कि वैमानिक देव તે કેવળજ્ઞાનીના પ્રકૃષ્ટ મન અને વચનને જાણતા નથી, પણ પરમ્પપપન્નક સમ્યગ્દષ્ટિ વૈમાનિકે જ કેવલીના પ્રકૃણ મન અને વચનને જાણી શકે છે. से वात "तत्थ ण अणंतरोववन्नगा न जानति परंपरोववन्नगा जाणंति" આ મૂલ દ્વારા બતાવી છે ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે “હે ભદન્ત ! શા કારણે પમ્પરોપપક સમ્યગ્દષ્ટિ વિમાનિકે જ કેવલીના પ્રકૃષ્ટ મન અને વચનને જાણી શકે છે? गौतमना मा प्रश्न उत्तर मापता महावीर प्रभु ४ छ-"गोयमा" ॐ गौतम ! " पर परोवपन्नगा दुविहा पण्णत्ता" ५२५२५पन्न सभ्य वैमानिना में प्रा२ हा छ-(पज्जत्तगा य अपज्जतगाय) (1) पर्याप्त मन (२) मर्या. " तत्थण पज्जत्तगा जाणंति, अपज्जत्तगा न जाणंति" પર્યાપ્તક પરંપરાપપન્નક વિમાનિક દેવે જ કેવલીના પ્રકૃણ મન અને વચનને જાણ શકે છે, અપર્યાપ્તક જાણું શકતા નથી, કારણ કે જાણવાનું કામ મનની મદદથી
SR No.009314
Book TitleBhagwati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages1151
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size74 MB
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