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भगवती उत्सुको भवेत् उत्सुकायेत किमपि अभीप्सितं वस्तु आदातुमौत्सुक्यं कुर्यात् ? भगवान् तत्स्वीकुर्वनाह-'हन्ता, गोयमा! हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा गौतम ! हन्त. त्वदुक्तं सत्यं-छद्मस्थो मनुष्यः अवश्यं हसेद् वा, उत्सुकायेत वा, विपयादानं प्रति उत्कण्ठां कुर्यादेवेत्यर्थः । पुनगौतमः पृच्छति-'जहाणं भंते ! ' इति । यथा खलु भदन्त ! ' छउमत्थे मणुस्से हसेज्ज, उस्मुयाएज' छद्मस्थो मनुष्यः हसेत् , उत्सुकायेत, 'तहाणं केवली वि हसेज वा, उस्मुयाएज्ज वा ?' तथा खलु किम् केवली केवलज्ञानी अपि हसेद् वा, उत्सुकायेत वा? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'णो इणटे सम' नायमर्थः समर्थः, नैवं भवितुमहति ? गौतमस्तत्र कारणं पृच्छति-' से केणडेणं भंते !' इत्यादि । हे भदन्त ! तत् केनार्थेन 'जाव नो णं तहा केवली हसेज्ज वा, उस्मुयाएज्ज भी वस्तु को ग्रहण करने की उत्कंठा होना इसका नाम उत्सुकता है। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं कि- 'हंता, गोयमा!' हां, गौतम ! (हसेज्ज वा उस्सुयाएज्ज वा) छद्मस्थ मनुष्य हसतो है और उत्सुकतावाला होता है । अर्थात् विषयों को ग्रहण करने के लिये उसके मनमें औत्सुक्यभाव होता है । गौतम प्रभु से पुनः पूछते हैं कि (जहा गं भंते ! छउमत्थे मणुस्से हसेज्ज उस्सुयाएज्ज) हे भदन्त जिस प्रकार से छद्मस्थ मनुष्य हँसता है और उत्तुकता वाला होता है (तहा णं केवली वि हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा ) उसी तरह से क्या केवलज्ञानी भग वान् भी हँसते हैं या उत्कंठावाले होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! (णो इण समढे) यह अर्थ समर्थ नहीं हैअर्थात् ऐसा नहीं होता है । गौतम इस विषय में कारण पूछते हैं कि કેઈપણ ઈચ્છિત વસ્તુની પ્રાપ્તિને માટે ઝંખવું તેનું નામ ઉત્સુકતા અથવા Grl छ. महावीर प्रभु तेनी मा प्रमाणे पास आपे छ (हंता गोयमा !) डा, गौतम ! ( हसेज्ज वा उस्सुयाएज्ज वा) छमस्थ मनुष्य से ५ छ અને ઉત્સુકતાવાળો પણ હોય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે ઈચ્છિત વસ્તુ પ્રાપ્ત કરવાને માટે તે આતુર હોય છે.
प्रश्न-(जहाणं भंते ! छउमत्थे मणुासे हसेज्ज, उस्सुयाएज्ज) महन्त ! २वी शत छ५२५ मनुष्य से छ भने 68 डाय छे. ( तहाण केवली वि हस्सेज्ज वा, उसुवाएज्ज वा ) मे प्रमाणे शु ज्ञानी मापान से छ अथवा सुस्ताय छ ? उत्तर-(गोयमा! णो इणढे समढे) 3 गौतम ! मे मानतुं नथी.