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प्रमेयचन्द्रिका टीका २० ५ उ०४ सू०२ उमस्थशब्दश्रवणनिरूपणम् १९९ पञ्चत्यिमेणं, ण, उड़, अहे मियं पि जाणइ ' दक्षिणे दक्षिणदिग्भागे पश्चिमे पश्चिमदिग्भागे, उत्तरे उत्तरदिग्भागे, ऊर्ध्वम् = ऊर्ध्वलोके, अधः = अधोलोके सर्वौवेत्यर्थः, मितमपि जोनाति अमितमपि जानाति, 'सम्बं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली' सर्व जानाति के ली, सर्व पश्यति केवली मनुष्यः, 'सव्वओ जाणइ, पासइ,' सर्वतो द्रव्यादिसर्वप्रदेशान् जानाति, पश्यति, 'सव्वकालं सबभावे जाणइ केवली' सर्वकालम् सर्वरिमन् काले सर्वभावान् जीवाजीवादि पदार्थान जानाति केवली, 'सव्वभावे. पासइ केवली' सर्व भगवान् पश्यति केवली, तत्र कारणमाह-' अणंते णाणे केवलिस्स' अनन्तं ज्ञानम् अनन्तार्थविषयकत्वात् केवलिनः, ' अणंते दसणे केवलिस्स' अनन्तं दर्शनम् केवलिनोऽनन्तार्थसमस्त जीवा जीवादिक पदार्थों को भी जानते हैं ' एवं ' इसी तरह से 'दाहिणेणं पच्चत्थिणं,उत्तरेणं, उर्दू अहे मियं पि जाणइ, अमिय पि जा. णइ' वे दक्षिण दिशा में, पश्चिमदिशा में उत्तर दिशा में, ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में-सर्वत्र ही-मित-परिमित पदार्थ को भी जानते देखते हैं और अपरिमित पदार्थ को भी जानते देखते हैं । 'सव्व जाणइ केवली सवं पासइ केवली' क्यों कि सिद्धान्त की ऐसी अकाटय मान्यता है कि केवली भगवान केवलज्ञान से समस्त रूपी अरूपी पदार्थों को उन की समस्त पर्यायों सहित जानते हैं और केवल दर्शन से समस्त रूपी अरूपी पदार्थों को उनकी अनन्त पर्यायों के साथ देखते हैं । 'सव्वओ जाणइ पासह सर्व प्रकार से केवली भगवान् द्रव्यादिकों के समस्त प्रदेशों को जिन २ द्रव्यों के जितने २ प्रदेश हैं उन सबको जानते हैं और देखते हैं । “संव्वकालं सब्वभावे जाणइ केवली' इसलिये केवली प्रभा (दाहिणेणं, पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं, उडूढं, अहेमिपि जाणइ, अमियं पि जाणइ) ते क्षिशिमा, उत्तर दिशामा, पश्चिम Ani, ser લોકમાં અને અધેલકમાં–સર્વત્ર-પદાર્થોને પણ જાણે છે અને દેખે છે, એટલું 1 4 अपरिमित पहान ५ नो छ भने मेछ. (सव्वं जाणइ केवली. सव्वं पासइ केवली ) २९ सिद्धांतनी मेवी मान्यता छ । पक्षी ભગવાન કેવળજ્ઞાન વડે સમસ્ત રૂપી, અરૂપી પદાર્થોને તેમની અનત પર્યાયે સહિત જાણે છે, અને કેવળદર્શન વડે સમસ્ત રૂપી અને અરૂપી દ્રવ્યને तमनी मन पर्यायो सहित हेमे छे. (सनओ जाणइ पासइ ) Tel anવાન સર્વ પ્રકારે દ્રવ્યાદિકના સમસ્ત પ્રદેશોને-જે જે દ્રવ્યોના જેટલા જેટલા प्रहशा छे सधा प्रशान लो छ भने तुणे छ (सव्वकाल सव्वभावे