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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०५ उ० ३ सू० २ नैरयिकाद्यायुष्कनिरूपणम् १७३ अथवा निरायुष्कः संक्रामति ? भगवान् आह-'गोयमा ! साउए संकमइ, नो निराउए, संकमइ' त्ति हे गौतम ! नरकगमनयोग्यो जीवः सायुष्कः आयुष्य सहित एव सक्रामति नरकं गच्छति नो निरायुष्कः, न नरकयोग्यायुष्कराहतः संक्रामति नरकं गच्छति प्राणातिपातायात्रवसेवनेन तद्योग्यायुष्यमुपायं तत्सम्बद्ध एव जीवो नरकगामी भवति । पुनगौतमः पृच्छति-' से णं भन्ते ! आउए कहिंकडे, कहिं समाइण्णे ? ' हे भदन्त ! तत् खलु आयुष्कं, नरकयोग्यपापकर्म जन्यम् आयुष्यं कुत्र कृतम् ? कस्मिन् भवे प्रतिवद्धम्, ? कुत्र समाचीर्णम् ? क्वच है-जाता हे अथवा निरायुष्क होकर जाता है ? पूछने का तात्पर्य यह है कि जिसजीव को इस गृहीतभव से मरकर नरक में जाना है-वह जीव नरकायु का बंधकरके ही तो नरक में जावेगा अतः प्रश्न कर्ता प्रभु से यही बात पूछ रहे हैं कि ऐसा जीव कि जिसे नरक में जाना है वह नरकायु का बंध करके ही नरक में जाता है या विना नरकायु का बंध किये ही नरक में जाता है। इस प्रश्न के समाधान निमित्त प्रभु गौतम से कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम ! साउए संकमइ, नो निराउए संकमइ 'नरक में जाने योग्य जीव नरक योग्य आयुष्क सहित होकर ही नरक में जाता है, नरक योग्य ओयुष्यसे रहित होकर नरक में नहीं जाता है। तात्पर्य कहने का यह है कि प्राणातिपात आदि कर्मों के आस्रव के सेवन से नरक योग्य आयुका उपार्जन करके जीन उस आयु से सम्बद्ध हुआ ही नरकगामी होता है । अब गौतम प्रभु से पुनः पूछते हैं कि-'सेणं भंते आउए कहिंकडे, कहिं लमाइण्णे' हे भदन्त ! नरक योग्य पापकर्मसे जन्य उस आयुका बंध जीवने किस भवमें किया ? तथा इस
ગૌતમ સ્વામીના પ્રશ્નને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે-જે જીવ ગૃહીત ભવમાથી મરીને નરકમાં જાય છે તે જવ નરકાયુને બંધ કરીને જ નરકમાં જશે, કે નરકાયુને બંધ કર્યા વિના નરકમાં જશે?
ગૌતમ સ્વામીના આ પ્રશ્નનું સમાધાન કરતા મહાવીર પ્રભુ તેમને કહે छ-" गोयमा ! 8 गौतम (माउए संकमइ, नो निराउए सकमह ) न२४मा જવાને ગ્ય જીવ નરકાયને બાંધ કરીને જ નરકમાં જાય છે, નરકાયુને બંધ કર્યા વિના તે જીવ નરકમાં જ નથી આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે પ્રાણાતિપાત આદિ કર્મોના આસોનું સેવન કરવાથી, જીવ નરકાયુને બંધ બાંધીને નરકગતિમાં ઉત્પન્ન થતો હોય છે.
प्रश्न (से ण भंते ! आउए कहि कडे कहि समाइण्णे) 3 महन्त ! २४ने યોગ્ય પાપકર્મ નિત તે આયુને બંધ જીવે કયા ભવમાં કર્યો ? તથા તે